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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
सेवकों में से योग्य पुरुषों को जैन धर्म एवं जैन साधुओं के प्राचार विचार क्रिया कांड का ठीक अभ्यास करवा कर उनको साधु के वेश पहना कर अनार्य देशों में भेज दिये और साथ में उनकी सहायता के लिये ऐसे पुरुषों को भी भेज दिये कि उन नकली साधुओं के आवश्यक कार्यों की ठीक व्यवस्था कर सकें। इस प्रकार व्यवस्था करने से उन नकली साधुओं ने अनार्य देश में जाकर उन लोगों को जैनधर्म का प्रतिबोध करना शुरू किया । साथ साथ में जैन साधुओं का आचार व्यवहार भी समझाते रहे कि जैन साधु इस प्रकार से आहार पानी लेते हैं इस प्रकार उनका व्यवहार है इत्यादि ।
नकली साधुओं के उपदेश से उन अनार्य पुरुषों पर इतना प्रभाव पड़ा कि उनका मानस जैनधर्म की ओर जल्दी से ही मुक गया। कारण, एक तो जैनधर्म के तत्त्व ही हृदयग्राही थे दूसरे जैन साधुओं का श्राचार व्यवहार क्रिया काण्ड रहन सहन और निस्पृहता भी ऐसी थी कि जनता को सहज ही में अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। जब वे अनार्य लोग जैनधर्म के साधुओं के आचार व्यवहार समझने लगे और उनके खानपान में भी बहुत सुधार हो गया तो वे नकली साधु लौटकर सम्राट के पास आये और वहाँ का सब हाल कह सुनाया इस पर सम्राट ने जाकर सूरिजी से प्रार्थना की कि भगवान् ! अनार्य प्रदेश जैनश्रमणों के बिहार करने योग्य बन गया है । कृपा कर आप अपने साधुओं को उस प्रदेश में धर्म प्रचार करने के लिये विहार करने की आज्ञा दीलावे ।
सूरीश्वरजी ने सम्राट् के वचन सुनकर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक अपने साधुओं को अनार्य देशों में विहार करने की आज्ञा देदी । पर वे साधु आजकल के एक प्रान्त में रहने वाले साधुओं जैसे नहीं थे कि अनेक ललकारें फटकारें लगते हुये भी एक ही प्रदेश में अपना अपमानित जीवन गुजार रहे हैं। किन्तु उस समय के साधु जैनधर्म का प्रचार करने में अपना जीवन अर्पण करने वाले थे कि सूरीश्वरजी की आज्ञा होते ही जैसे शेर के बच्चे गर्जना कर गुफा से निकलते हैं उसी भांति बड़े ही उत्साह एवं खुशी के साथ अनार्य देश की ओर विहार कर दिया । हाँ एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जाने में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। तो अनार्य प्रदेश में जाना तो उन्होंने जानबूझ के ही आपत्तियों को अपना मेहमान बना लिया था । जैसे इस समय सुलभ और परिचित क्षेत्र में भी विहार में नौकर-चाकर एवं रसोइया साथ रहते हैं वैसे उन्होंने नहीं किया था। यदि वे भी ऐसा करते तो जैसा आज के सूरियों का पग पग पर अपमान एवं अनादर होता है, इससे अधिक फायदा वे भी नहीं उठा सकते थे पर उन्होंने तो सब कठिनाइयों को सहन करते हुए अनार्य देशों में जाकर भगवान महावीर के स्याद्वाद एवं अहिंसापरमोधर्मः का सन्देश अनार्यों के घर घर में नहीं पर कान कान तक पहुँचा दिया था। इस कार्य में उन्होंने जैसे अधिक संकटों को सहन किया वैसे लाभ भी अधिकाधिक प्राप्त कर लिया। जब वे अनार्य जैनधर्म के उपासक बन जैनधर्म पालन करने लगे तो वे आर्यों से भी दो कदम आगे बढ़ गये । प्रमाण रूप में जब अनार्य देश में विचरने वाले साधुओं में से कई वापिस सूरिजी के पास आते तब थे वहाँ के अनार्यों के भक्ति भाव का इस प्रकार वर्णन करते थे कि प्रवर्तयामिसाधूनां । सुविहारविधित्सया अन्ध्राधनार्यदेशेषु । यति वेषधारान्भटान् ॥ १५८ ॥ येन व्रत समाचारः । वासना वासितोजनः । अनार्योत्पन्नदानादौ । साधूनां वर्तते सुखम्।। १५९ ॥ चिन्तयित्वेत्थमाकार्याना-नेवमभाषत । भो यथा मद्भटायुष्मान् याचन्ते मामकं करम् ॥ १६० ॥
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