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________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्षे फिर तुम्हारा दादा नर्क से आकर तुमको कैसे कह सके ? परन्तु पाप करने वालों को अवश्य नर्क में जाना पड़ता है। अतः तुम मान लो कि जीव और शरीर अलग २ है और पुन्य पाप का फल भवान्तर में अवश्य भुगतना पड़ता है। ३-प्रश्न-हे स्वामिन् ! एक समय मैं राज सिंहासन पर बैठा था उस समय कोतवाल एक चोर को पकड़ कर मेरे पास लाया । मैंने उस जीते हुए चोर को एक लोहे की कोठी में डाल दिया और ऊपर से ऐसा ढाकन लगा दिया कि जिसमें वायु तक भी प्रवेश न कर पावे फिर कितनेक समय बाद उस कोठी को खोली वो वह चोर मरा हुआ पाया। मैंने उस कोठी को बारीक दृष्टि से देखा तो कहीं पर छिन्द्रन नजर नहीं आया जिससे कि चोर के शरीर से जीव अलग होकर बाहर निकल सका हो । बस, मैंने निश्चय कर जिया कि शरीर और जीव कोई भिन्न २ वस्तु नहीं है अतः एक ही है। उ०-राजन् ! यह तुम्हारी कल्पना ठीक नहीं क्योंकि आपको विचारना चाहिये कि शरीर तो स्थूल पुदगलों से बना है और जीव अरूपी पदार्थ है। तथा उसकी गति भी अप्रतिहत है वह किसी पदार्थ की रुकावट से रुक नहीं सकता है । यदि कोठी के छिद्र न होने से ही आपको भ्रांति हुई हो तो मेरा एक उदाहरण सुन लीजिये । भूमि के अन्दर एक गुप्त घर बड़ा ही सुन्दर है। जिसके अन्दर एक पुरुष को ढोल और बाका दे के बैठा दिया, बाद उसका दरवाजा व सब छिद्र बन्द कर दिये जैसे आपने कोठी के छिद्र बन्द किये थे, तब अन्दर बैठे हुये आदमी ने ढोल को खूब जोर से बजाया । क्यों राजन् ! क्या उस ढोल की आवाज बाहर आ सकती है एवं बाहर रहे हुए मनुष्य सुन सकते हैं ? हाँ प्रभो आवाज आती है और मनुष्य सुन भी सकते हैं। हे राजन ! जब आठ स्पर्श वाले स्थूल पुदगलों के गुप्त घर से बाहर आने में न तो छिद्र होता है और न रुकावट होती है तब जीव अरूपी अति सूक्ष्म कोठी से निकल जावें और उसके छिद्र न पड़े इसमें आश्चर्य की बात ही कौनसी है । कोठी तो क्या परन्तु बड़े २ पहाड़ और पृथ्वी के अन्दर से भी निकल जाता है, अतः आप को मान लेना चाहिये कि जीव और शरीर पृथक २ हैं। ४-प्रश्न- हे प्रभो ! एक समय कोतवाल ने चोर लाकर मेरे सामने खड़ा किया, मैंने उस चोर को मार कर कोठी में डाल दिया । ऊपर से ऐसा बन्द किया कि कोई छिद्र रहने नहीं पावे । फिर थोड़े दिनों में खोल के देखा तो उस चोर के मृत शरीर में बहुत से जन्तु दीख पड़े । जब कोठी के छिद्र न हुआ तो यह जीव कहां से आये ? अतः मैंने निश्चय किया कि तज्जीव तत्शरीर । ___उ०-हे राजन् ! यह आपकी एक भ्रान्ति है देखिये एक लोहे का गोला अग्नि में तपाने से अग्निमय बन जाता है परन्तु अग्नि शान्त होने पर उस गोले में कोई छिद्र होता है कि जिसके द्वारा अग्नि ने प्रवेश किया ? नहीं भगवान । बस समझ लो कि जैसे लोहे के गोले में स्थूल शरीर वाली अग्नि प्रवेश करने में छिद्र नहीं होता है तो कोठी में अदृश्य जीव के प्रवेश करने में छिद्र कैसे हो सकता है। अतः जीव और शरीर अलग २ हैं इसको मानना ही आप जैसे बुद्धिमानों का काम है । ५-प्रश्न-हे ग्वामिन् । श्रापका मानना ऐसा है किप्रत्येक जीव में अनन्त शक्ति रही हुई है परन्तु मैं देखता हूँ कि जितना वजन युवक उठा सकता है उतना वृद्ध नहीं उठा सकता। बतलाइये इसका क्या कारण है ? यदि सब जीवों में शक्ति समान है तो वजन उठाने में वृद्ध और जवान का अन्तर क्यों ? अतः मेरा मानना ठीक है कि शरीर और जीव अलग २ नहीं पर एक ही हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.janelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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