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________________ - १० MOT विद्वानों तथा सरकार के पुरातत्व विभाग की ओर से भारत के प्रत्येक प्रान्तों में शोध-खोज ( अन्वेषण ) का कार्य्यं बहुत अर्से से आरम्भ भी हो चुका है। बहुत से प्राचीन साधन एवं सामग्री भी प्राप्त हो चुकी है। जैसे: - १ – प्राचीन शिला लेख – जिसमें कई तो मन्दिर एवं मूर्तियों पर कई स्तम्भों पर कई स्तूपों पर और कई पत्थर की छोटी बड़ी चट्टानों पर खुदे हुए मिलते हैं। सबसे प्राचीन शिलालेख भगवान महावीर के पश्चात् ८४ वर्ष का है, जो अजमेर के पास बड़ली ग्राम से पं० गौरीशंकरजी ओझा द्वारा मिला है। इसके अतिरिक्त सम्राट अशोक, सम्प्रति और चक्रवर्त्ति राजा खारवेल के शिला लेख हैं। इन शिला लेखों ने इतिहास क्षेत्र पर काफ़ी प्रकाश डाला है। इनके अलावा और भी बहुत शिलालेख मिले हैं, जो कुशान वंशी राजाओं के समय और उसके बाद के हैं । २- प्राचीन मन्दिर मूर्त्तियाँ - इनकी प्राचीनता विक्रम पूर्वं चार पांच शताब्दि की तो आम तौर मानी जाती है पर इनके अतिरिक्त ई० सं० पूर्व पांच हज़ार वर्षों तक की मूर्त्तियाँ भी उपलब्ध हुई हैं। ३ - प्राचीन स्तूप एवं प्राचीन स्तम्भ - इनकी प्राचीनता ई० सं० के पांच छः सौ वर्ष पूर्व की है। ४ - प्राचीन सिक्के - सिक्का - हज़ारों की संख्या में मिले हैं। इनकी प्राचीनता ई० सं० पूर्व छठी शताब्दि की है । ५ – इनके अलावा मध्य कालीन ताम्रपत्र, दान-पत्र, सिक्के, मन्दिर भूर्तियों के शिलालेख एवं स्तूप, गुफाएँ और सिक ये अधिकाधिक संख्या में मिले हैं । ६ - लिखित पुस्तकें - जिसमें ताड़ पत्र पर लिखी पुस्तकें विक्रम की चौथी शताब्दि से प्रारम्भ होती हैं । इसके बाद उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, यह पुस्तकें जो चतुर्थी सादी की पाश्चातीय प्रदेशों से मिली हैं। पर भारत में भी प्राचीन पुस्तकों का मिलना असम्भव नहीं । आदि २ बहुत से साधन मिले हैं, शोद-खोज ( अन्वेषण ) का कार्य चालू है । भाशा है और भी मिलते रहेंगे । किन्तु विशाल भारत का इतिहास के लिए इतने ही साधन पर्याप्त नहीं हैं । यह तो केवल नाम मात्र के साधन हाँ, यदि इन साधनों के साथ हमारी प्राचीन पट्टावलियों और वंशावलियाँ मिला दी जांय तो इतिहास की थोड़ी बहुत पूर्ति हो सकती 1 ५ - वर्तमान में जैन धर्म के इतिहास की दशा: भारत का इतिहास ई० सं० से करीब ९०० वर्ष पूर्व से प्रारम्भ होना विद्वानों ने माना है। और जैनधर्म के भ० पार्श्वनाथ को भी विद्वानों ने ऐतिहासिक पुरुष होना स्वीकार किया है जो इ० सं० पूर्व की नौवीं शताब्दि में बनारस के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। यदि अश्वसैन राज को ई० सं० पूर्व नवीं शताब्दि से मानले तो करीब २ इतिहास काल के पास पहुँच जाता है । जब श्रीकृष्ण और अर्जुन के समय का अनुमान किया जाय तो उस समय जैनों के बाद सवे नेमिनाथ तीर्थंकर होना सावित है । वर्तमान काठियावाड़ प्रान्त के प्रभास पटूटन के पास भूमि के खोद काम से एक ताम्र पत्र मिल है जिसमें लिखा है कि "रेवा नगर के राज्य का स्वामी सुजाती के देव 'नेबुसदेनेशर हुए। वे यादु राज (कृष्ण के) के स्थान (द्वारिका) भाया । उसने एक मन्दिर सूर्य... देवनेमि जो स्वर्गं समान रेवतपर्व का देव है उसने मन्दिर बना कर सदैव के लिए अर्पन किया " ( " जैन-पत्र वर्ष ३५अंक १ ता० ३१-३-३७ विद्वानों का मत है कि सदेनेझर राजा का समय ई० सं० पूर्व छठी शताब्दि का है। खैर, कुछ भी हो, पर शोध खोज करने पर भ० नेमिनाथ को भी ऐतिहासिक पुरुष मान लिया जाय तो भाश्चर्य की बात नहीं है। जब इतिहास में जैनों का आसन इतना ऊंचा है, तब दुख इस बात का है कि जैनों में आज करीब २००० दो हजार साधु विद्यमान होने पर भी आज पर्यन्त जैन धर्म का इतिहास लिखने को किसी एक ने भी लेखनी न उठाई यहा कितने अफ़सोस की बात है ? यद्यपि ! कई लेखकों ने एवं कई संस्थाओं की ओर से जैन इतिहास के नाम से कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं किन्तु उनमें संक्षिप्त रूप से जैनाचार्यो का और प्रसंगोपात थोड़े नामांकित गृहस्थों का इतिहास लिख कर उनका नाम जैन इतिहास रख दिया है । किन्तु उन प्रकाशित पुस्तकों में भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नहीं आया। यदि जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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