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एक गच्छ का श्रावक दूसरे गच्छ को मानने लग जाय एवं एक गच्छ का भावक दूसरे गच्छ का कहलाने छग जाय तो इससे न तो जैन संख्या में न्यूनाधिकता होती है और न किसी गच्छ वाले त्यागी आचार्यों को ही नुकसान ला है। क्योंकि स्यागी पुरुषों को तो सब गच्छ वाले मानते पूजते हैं । परन्तु इस गच्छ परिवत्त'न से एक तो समाज में ट, कुसंप की भट्टियाँ धधकने लग गई थीं, दूसरे प्राचीन इतिहास को मिटा देने से उनके पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों से देश समाज एवं धार्मिक कार्यों में असंख्य द्रव्य ध्यय कर एवं प्राणों की आहुति देकर बड़ी र सेवायें करके जो धवल कीर्ति औ उज्ज्वल यशः कमाया था वह सब मिट्टी में मिल गया। उस गौरवशाली इतिहास के अभाव से उनकी सन्तान की नसों में रमती का खून नहीं उबलेगा, फलस्वरूप वह उन्नति करने में अयोग्य ही रहेगी और घह अपना नाम मुर्दा कौम में बई खुशी से लिखवा देगी।
___ जैन समाज का इतना बड़ा नुकसान होने पर भी गृहस्थों के गच्छ परिवर्तन करने वाले मतधारियों को कुर भी काम नहीं । हाँ, इतना ज़रूर हुभा कि एक ही जाति के लोग भिन्न भिन्न स्थानों में पृथक् पृथक् गच्छों की क्रिय करने में आपसी फूल कुसम्प बढ़ने लग गये। आज भी हम बहुत से ग्राम ग्रामान्तर में देखते हैं कि एक जाति एक ग्राम एक गच्छ की क्रिया करती है तब दूसरे ग्राम में वही जाति दूसरे गच्छ की उपासक होना बतलाती है ।
___ वंशावलियों का लिखना ऊपर बतलाई हुई मन्दिरों के गोष्ठिकों की योजनानुसार हुआ और जब उन २ पौसालों प्राचार्यादि आचार में शिथिल हो गए तब वंशावलियाँ उनकी आजीविका का आधार बन गई । जो जो गोष्ठिक बे, पौसालों वाले उनकी वंशावलियाँ माँडने से वे धर्मगुरु के स्थान से हट कर कुल-गुरु कहलाने लग गए । यह हाल मैंने कई प्राचीन एवं प्रमाणिक ग्रन्थों को पढ़ कर लिखा है। इसमें कई जातियों के गच्छों का रद्दोबदल हो गया है कारण, कि ओसवाल जाति के मूल स्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि ही थे। बाद में आप की संतान परम्परा के आचार्यों में इस वंश को खूब बढ़ाया था। अतः ओसवालों की अधिक जातियाँ इसी उपकेश गच्छ द्वारा ही स्थापित की गई थीं किन्तु उस गोष्ठिक योजनानुसार कई-कई जातियाँ अनेक गच्छों के नाम से विभाजित हो गई, जो आज वर्तमान समय में मी दृष्टिगोचर हो रही हैं। जैसे वाफना रांका चोरड़िया संचेती आदि जातियों के पूर्वजों को २४०० वर्ष जितना प्राचीन इतिहास था जिसको नूतन मत धारियों ने ८००-९०० वर्ष जितनी अर्वाचीन ठहरा दिया और इनकी पुष्टि में कई कल्पित ज्याएं भी घड़ डाली । इसी प्रकार संघी भंडारी मुनौयतादि जातियों के विषय भी गड़बड़ कर डाली । इससे और तो कुछ नहीं पर उन जातियों के इतिहास अव्यवस्थित हो जाने से जैन समाज को बड़ा भारी नुकसान हुआ है । इन गड़बड़ मचाने पालों में कई गच्छ तो नाम शेष ही रहे हैं पर उनके द्वारा फैलाई गलत फहमी अवश्य अमर बन गई है।
वंशावलियों में लिखा हुआ हाल कितना ही अतिशयोक्ति पूर्ण क्यों न हो किन्तु हमारे इतिहास के लिए इतना उपयोगी है कि दूसरे स्थानों में खोजने पर भी भओसवाल जाति का इतिहास नहीं मिलता है । अतः हमारा कर्तव्य है कि हम उन मावलियों का ठीक संशोधन कर इतिहास के काम में लें। देखिये इतिहास के मर्मज्ञ एवं प्रसिद्ध लेखक पं. गौरीशंकरजी क्षा स्वनिर्मित राजपूताने के इतिहास में पृष्ठ १० पर लिखते हैं:
" x x इतिहास व काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती हैं x xx x x x तथा जैनों की पटावलियां भादि मिलती हैं। वे भी इतिहास के साधन हैं"
पट वलियों और वंशावलियों के अतिरिक्त कई रासा, ढालें, चौपाई, सिलोकादि, अपभ्रंश भाषा का साहित्य बहुभा है और उसमें अर्वाचीन महापुरुषों को जीवन घटनाएँ आदि का वर्णन मिलता है । और वे घटनाएं प्रायः प्रामविक होने से ऐतिहासिक कही जा सकती हैं। इनके अलावा कई राजा, बादशाहों के दिए हुए फरमान (आज्ञापत्र) (प्रमाणपत्र) भी इतिहास के साधन हैं।
वर्तमान की शोध-खोज से प्राप्त इतिहास की सामग्री:वर्तमान में विद्वानों की इतिहास की भोर भधिक रुचि बढ़ती जा रही है और इसके लिए पौर्वात्य एवं पाश्चात्य .
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