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________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ मंदिरों से मेदनी मंडित कर दी थी । कहा जाता है कि सवा लक्ष नये मन्दिर और सवा करोड़ जिन प्रतिमायें बनवा कर प्रतिष्टा करवाई थी जिसमें ८५००० प्रतिमायें तो सर्वधात की थीं। साठ हजार जीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार भी करवाया था । जैनमन्दिरों के अन्दर एक विभाग में तथा मंदिरों के आस पास के प्रदेश में जैन श्रमणों के ठहरने को उपाश्रय भी बनवाये थे; इतना ही क्यों पर सर्व साधारण जनता के हितार्थ तालाब कुए बाग बगीचे सड़के तथा मुसाफिर ठहरने के लिये अनेक मकान भी बनवाये थे । इन के अलावा मनुष्यों के एवं पशुओं की चिकित्सा के लिये औषधालय भी स्थान स्थान पर स्थापित करवा दिये थे विद्या प्रचार के निमित्त विद्यालयों का सर्बत्र प्रचार करवा दिया था। सदाचार एवं धर्म की भावना वृद्धि के लिये राजा की ओर से उपदेशक सब स्थानों पर घूम २ कर उपदेश दिया करते थे। जैन ग्रन्थों में यह भी उल्लेख मिलता है कि सम्राट सम्प्रति ने उज्जैन से एक शत्रुजय तीर्थ का बड़ा भारी संघ निकाला था जिसमें आर्य सुहस्ती आदि ५००० जैनश्रमण श्रमणियें थी। सोना चांदी मणि माणिक की मूर्तियों के साथ कई देरासर भी संघ में थे। इस संघ में कई पांच लक्ष भावुक नरनारियों की संख्या कही जाती है संघ के साथ चलते २ रास्ते में भी सम्राट् ने कई स्थानों पर मन्दिरों की नींव डलवा कर कार्य प्रारम्भ करवा दिया था। इस प्रकार श्री शत्रुजय गिरनारादि तीर्थो की यात्रा कर अन्य लाखों भावुकों कों तीर्थ यात्रा का लाभ दिया था। सम्राट् सम्प्रति ने श्रीशत्रुजय गिरनार आदि का यह एक ही संघ निकाल कर यात्रा की हो, ऐसी बात नहीं है पर उसने अनेक बार इस पुनीत तीर्थ की यात्रा की थी। ऐसा जैनसाहित्य में उल्लेख मिलता है। यही कारण है कि सौराष्ट्र प्रदेश आपको बहुत प्रिय हो गया था । गिरनार की तलेटी में एक सुदर्शन नाम का तालाव जो सम्राट चन्द्रगुप्त ने खुदवाया तया उसका घाट अशोक ने बंधवाया था उसका उद्धार भी सम्राट् सम्प्रति ने करवाया था । देखो वहाँ का शिलालेख ।। सम्राट् सम्प्रति भारत विजय कर लेने के पश्चात् राजकार्यों से निश्चित हो जैनधर्म के प्रचार के लिये सदैव संलग्न रहता था और आप यह भी सोचता रहता था कि भगवान महावीर के समय अनार्य देशो में भी जैनधर्म का प्रचार था। सम्राट् श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार के उद्योग से आद्रकपुर नगर के राजपुत्र पाककुमार ने भगवान महावीर के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा ली थी इत्यादि । सुना जाता है सम्प्रति नामा ऽभूत । स च जात मात्र एव पितामहदत्तराज्ये रथयात्रा प्रवृत श्री आर्य सुहस्ति दर्शनाज्जात जातिस्मृतिः सपादलक्षजिनालयसपादकोटीनवीनर्विवपट्त्रिंशतजीर्णोद्धारपंचनवति सहस्रपित्तलमय प्रतिमाऽनेक शतसहस्रसत्रशालादिभिर्विभूषिता त्रिखंडाम पिमहोमकरोत् । कल्पसूत्र की टीका डाक्टर थोम्स लिखते हैं कि: The multitudinous images of the Maury:s, which were so easily reproduced in the absolute repetitive identity and so largely distributed as part and parcel of the creed itself. The people in Jambudvipa, who had remained unassociated with the Gods, became associated with the Gods. ३८ २५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personali Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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