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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६८२-६९८
जीव उनकी बहिन को दिख पड़े इसमें एक तो अप्रकाश कारी भाजन दूसरे प्रति लेखन का प्रमाद तीसग उसमें हमेशा पानी का रहना इन सब कारणों से जीवों की उत्पति हो जाना एक सभाविक बात थी, बहिन ने कहा मुनि ? सर्व ब्रतों में जीव दया व्रत प्रधान है जिसके लिये तुम्हारा इतना प्रमाद है कि असख्यं त्रस जीवों की विराधना होती है भला ? संयम की मर्यादा के लिये स्वल्य वस्त्र पात्र में तो तुम परिग्रह कहते हो तब यह ताम्र का कमंडल तथा मौर पिछी रखते हो क्या यह परिग्रह नहीं है इत्यादि बहुत कुछ कहा ? इसका पश्चाताप करता हुआ मुनि महाकीर्ति बोला कि बहिन क्या किया जाय यहां कोई श्वेताम्बर आचार्य आता ही नहीं है ? बहिन ने कहा ठीक है अभी थोड़ा समय में शूरसेन, प्रान्त की और से श्वेताम्बराचार्य श्राने वाले हैं आने पर में आपको सूचना देदुगी ? महाकीर्ति ने कहा बहुत अच्छी बात है मैं श्वेताम्बराचार्य से अवश्य मिलुगा । बाद बहिन ने मुनि को भिक्षा दी और मुनि भिक्षा कर अपने स्थान पर चले गये ।
थोड़ा ही समय के बाद भगवान पार्श्वनाथ की कल्याणक भूमि की यात्रार्थ$एक जिनसिंहसूरि नामका श्राचार्य अपने शिष्यों के परिवार से वनारसी नगरी की ओर पधारे और उद्यान में ठहर गये नगरी में खबर होने से सब लोग सूरिजी को बन्दन करने या उपदेश श्रवण करने को गये इस बात की सूचना बहिन ने भाई मानतुंग को दी अतः मानतुंग भी आचार्यश्री के पास गया और प्राचार्य द्वारा जैन धर्म का स्वरूप सुन कर उसने श्वेताम्बर दीक्षा स्वीकार करली आचार्यश्री ने मानतुंग को योग्य समझ कर जैनागमों का अध्ययन करवाया और कई विद्याओं की आम्नाय भी प्रदान की जब मानतुंग सर्व गुण सम्पन्न हो गया तब आचार्य श्री ने उसको श्राचार्य पद से विभूषित कर गच्छ का सर्व भार मानतुंगसूरि को सुप्रत कर दिया मानतुंग सूरि पर सरस्वती देवी की पूर्ण कृपा थी कि उसके प्रभाव से श्राप काव्यादि कवित बनाने में निपुण बनगये ।
प्रस्तुत बनारसी नगरी में वेद वेदॉग का जान कार धुरंधर विद्वान मयूर नामका एक ब्राह्मण था जिसका राज सभा में अच्छा मान था उसके एक पुत्री थी जिस का वर के लिये मयूर चिन्तातुर रहता था कारण वह चाहता था कि मेरी पुत्री जैसे स्वरूपवान एवं लिखी पढ़ी विदुषी है वैसा ही वर मिले तो अच्छा ? उसी नगरी में काव्य तर्क छन्दादि कला में प्रवीण वेद पुराण का पारंगत बाण"नाम का ब्राह्मण रहता था उसकी मयुर से भेट हुई और मयूर ने वाण को सर्व प्रकार से योग्य समझ कर अपनी पुत्री की शादी बाण के साथ करदी बाद बाण को राज सभा में ले गया जिसकी विद्वता देख राजा ने बाण का अच्छा सन्मान किया । और हमेशा राज सभा में आने का भी कहाँ अतः मयूर और बाण दोनों विद्वान राजा हर्षदेव की सभा का नामी पंडित कहलाये जाने लगे
मयूर की पुत्री के साथ बाण आनन्द पूर्वक सुख से रहने लगा। एक दिन बाण ने अपनी पत्नी का
8 अन्यदा जिनसिंहाख्याः सूरयः पुरमाययुः । पुरा श्री पार्श्व तीर्थेश कल्याणक पवित्रितम् ॥ ३७ २ गुरुभिर्दीक्षितश्चासौ नदीष्णो ग्रेपि'च क्वचित् । तपस्या विधि पूर्व चागम मध्याप्यतादरात ॥ ३८ ३ ततः प्रतीति भृत्सम्यक्तयः श्रुत समर्जनात् । योग्यः सन् गुरुभिः सूरि पदे गच्छाहतः कृतः ॥ ३९ ४ कोविदाना शिरोरत्र मयूर इति विश्रुतः । प्रत्यर्थि सार्पदप्पाणां मयूर इव दर्ग्रहृत् ॥ ४३ ५-तर्क लक्षण साहित्यरसास्वादवश कधीः। अनू चानो महाविप्रो बाणाख्यः प्राग्गुणान्वित ॥ ४७
आचार्य जिनसिंह और महाकीर्ति ]
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