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________________ वि० सं० २८२–२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नगरी में श्रेष्टिवीर्य धनदेव नाम का एक धनाड्य व्यापारी नागरिकों में श्रामेश्वर जैन श्रावक बसता था उसके गृहदेवी शीलवती से एक मानतुगं नामका पुत्र हुआ उसकी बाल क्रीड़ा होन हार की सूचना दिया करती थी जब मानतुगं युवक अवस्था में पदार्पण किया तो एक समय वह किसी चैत्य में रहे हुऐ चारुकीर्ति दिगम्बराचार्य के पास गया और उनकों अभिवादन किया बदले में दिगम्बराचार्य ने धर्म वृद्धि रूप आशीर्वाद देकर उसको संसार असारता के विषय उपदेश दिया जिससे मानतुगं संसार को असार समझ कर आचार्य श्री के पास दीक्षा लेने को तैयार हो गया परन्तु मानतुगं के माता पिता कब चाहते थे कि हमारा प्यारा पुत्र मानतुगं हमको छोड़ कर साधु बन जाये। फिर भी मानतुगं ने अपने माता पिता को समझा बुमा कर आज्ञा प्राप्त कर दिगम्बराचार्य के पास दीक्षा ग्रहन करली। आचार्य ने उसका नाम महाकीर्ति रखा और अपने मत की शिक्षा दी कि मुनि-साधुओं को सूत ऊन या रेशम का थोड़ा भी वस्त्र नहीं रखना अर्थात बिलकुल नम ही रहना, केवली केवल आहार नहीं करे, स्त्रियों की मुक्ति नहीं होती है साधुओं को भिक्षा ग्रहन समय ३२ अन्तराय होती हैं इत्यादि ? उस समय दिगम्बरों के पास और था ही क्या ? मुनि महाकीर्ती अपने मत में ठीक जान कार हो गया साथ में थोड़ी बहुत तपस्या भी करता था और अपने गुरु के साथ चैत्यालय में ठहरे हुए थे उसी बनारसी नगरी में एक श्रेष्टिवर्य लक्ष्मीधर नाम का सेठ बसता था वह बड़ा ही धनाड्य एवं प्रसिद्ध पुरुष था मानतुगं की बहिन लक्ष्मीधर को ब्याही थी वे दोनों दम्पति श्वेताम्बराचार्यों को मानने वाले श्वेताम्बर श्रावक थे एक समय दिगम्बर मुनि महाकीर्ति भिक्षा के लिये भ्रमण करता हुआ अपनी बहिन के वहां चला गया बहिन ने अपना भाई जान उनका सत्कार कर आहार के लिये आमन्त्रण किया जब महाकीर्ति अपने पास का कमण्डल से पानी लेकर मुख प्रक्षालन करने लगा तो उस पानी में बहुत त्रस तत्सतो मानतुगाल्यो विख्यातः सत्व सत्यभू । अवज्ञात पर द्रव्य वनिता वितथा प्राहः ॥ ८ संतीह मुनयो जैना नग्ना भग्नस्मराधय । तच्चैत्ये जग्मिवानन्यदिवसे विवशेतरः ॥ ९ वीतराग प्रभुनत्वा गत्वा गुरुपदांतिकम् । प्रागमद्वर्म वृद्धयाशीर्वादेन गुरुणार्हित ॥ १. महाव्रतानि पंचास्योपादिशन्नग्नतां तथा । उर्णकार्पासकौशेय शौचा वृति निषेधतः॥ ११ इत्यायनेकधा धर्म मार्गाकर्णनतस्तदा । वैराग्य रंगिणो मानतुगस्य व्रत काक्षिणः ॥ १२ तन्माता पितरौ पृष्ठाचार्य स्तस्य व्रत ददौ। चारुकीर्ति महीकीर्तिरित्य स्याख्यां ददो चसः ॥ १३ स्त्रीणां न निर्वृतिर्मान्यामुक्तिः केवलिनोपिहि। द्वात्रिंशदन्तरायाणि बुबुधे च बुधेश्वरः ॥ १४ * अशोधन प्रमादेनानुसंधानाज्जलस्य च । नैके संमूर्छितास्तत्र पतरास्तत्कमडली ॥ २० गडूषार्थमृषिर्यावच्चुलुकेजलमाददे। ददर्शतानस्वसाप्राह लीना श्वेतांबर व्रते ॥२१ व्रते कृपा रसः सार स्तदमी द्वीद्रियास्त्रसाः । विपद्यते प्रमादाद्वस्तज्जैनसदृशंनहि ॥ २२ लज्जा वरण मात्र वस्त्र खण्डे परिग्रहः । ताम्र पात्रे कथं न स्याद्यादृच्छि कमिंद किमु ॥ २३ धन्य श्वेताम्बरा जैनाः प्राणि रक्षार्थमुद्यताः। न सन्निदधतेनीरमपि रात्रौ क्रियो द्यता ॥ २४ ७१-मानतुग की दीक्षा होने के बाद भी दिगम्बराचार्य बनारसीके चैत्य में ही ठहरे इससे पाया जाता है कि जैसे श्वेताम्बरों में चैत्यावास की प्रवृति थी वैसे ही दिगम्बरों में भी चैत्यवास की प्रवृति थी। २-मानतुगसूरि ने बनारस के राजा हर्षदेव की सभा में भक्तामर की रचना कर चमत्कार बतलाना प्रबन्धकार ने लिखा है पर वीर शावली में उज्जैन नगरी के राजा बृद्धभोज की सभा में मानतुंगसरिने भक्तार बतलाया लिखा है। उज्जैन में हर्षदेव का राज होन पाया जाता है यदि ज्ञानेश्वर एवं कन्नौज के वैश्य कुल का हर्षदेव राजा ही यह हर्षदेव हो तो इसका राज बनारस में भी था पर उसका समय देखते वे मानतुंगसूरि इन मानतुगसूरि से पृथक होना चाहिये इसके लिये हम आगे चल कर मानतुगसूरि के समय निर्णय के स्थान लिखेंगे-- [ दिगम्बर महाकीर्तिका कमंडल For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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