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________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्षे सवालक्ष मनुष्यों को प्रोसवाल बना कर जैनधर्म धारण करवाया इत्यादि । पर यह बात बिलकुल गलत हो नहीं बल्कि एक बिना शिर पैर की गप्प है । सूरिजी एक साधु के साथ नहीं पर ५०० साधुओं के साथ पधारे थे और भिक्षा के अभाव में वे तपश्चर्या करते थे। न रुई का साँप बनाया और न राजपुत्र को कटवाया । वे चौदहपूर्वधर महात्मा ऐसा कौतूहल करते ही क्यों ? उन्होंने जो कुछ किया था; वह अपने आत्मबल और उपदेश द्वारा ही किया था। वह प्राचीन पट्टावलियों, चरित्र प्रन्थों में विद्यमान है जिसको कि मैं आज लिख रहा हूँ। जिसको पढ़ने से आप स्वयं समझ सकेंगे। . नगर में शोक के काले बादल सर्वत्र छा गये थे । राजा, मंत्री और नगर के लोग रुदन करते हुये राजजामाता की स्मशान यात्रा के लिये जा रहे थे। भाग्यवशात् रास्ता में एक लघु साधु ने आकर उन लोगों से कहा अरे मूर्ख लोगो! इस जीते हुये मंत्रीपुत्र को जलाने के लिये स्मशान क्यों ले जा रहे हो ? बस, फिर तो था ही क्या ? उन लोगों ने जाकर राजा एवं मंत्री से सब हाल निवेदन किया। अतः उनके अन्तरात्मा में कुछ चैतन्यता जागृत हुई । शीघ्र ही कहा कि उस साधु को यहाँ लाओ । जब साधुको ढूंढने को गये तो वह नहीं मिला । इस हालत में सब की सम्मति हुई कि बहुत अर्से से शहर के बाहर लुणाद्री पहाड़ी पर कई साधु आये हुये हैं और वह लघु साधु भी उनके अन्दर से एक होगा, अतः मृतकुमार को लेकर वहाँ ही चलना चाहिये । बस ग़रजवान क्या नहीं करते हैं ? सब लोग चल कर सूरिजी के पास आये और राजा तथा मंत्री हाथ जोड़ कर दीनस्वर से करने लगे प्रार्थना । कि हे दयासिन्धो ! अाज हमारे पर दुर्दैव का कोप होने से हमारा राज्य शून्य हो गया है । हमारे पुत्र रूपी धन को मृत्यु रूपी चोर ने हरण कर लिया है। हे करुणावतार ! आज हमारे दुःख का पार नहीं है, अतः आप कृपा कर हमारे संकट को दूर कर पुत्र रूपी भिक्षा प्रदान करें। आप महात्मा हैं रेख में मेख मारने को समर्थ हैं इत्यादि नम्रता पूर्वक प्रार्थना की। इस पर वीरधवलोपाध्याय ने समय एवं लाभालाभ का कारण जान उन लोगों से कहा कि थोड़ा गर्म जल होना चाहिये । बस पास में ही नगर था और आज तो घर २ में गरम जल था । एक आदमी जाकर गर्म जल लाया । उस गर्मजल से सूरिजी के चरणांगुष्ठ का प्रक्षालन कर इस जल को मंत्री पुत्र पर डाला । बस, फिर तो था ही क्या, मंत्रीपुत्र के शरीर से विष चोरों की तरह भाग गया और मंत्रीपुत्र खड़ा हो कर इधर उधर देखने लगा। वादित्रान् आकर्ण्य लघुशिष्यः तत्रागतः झंपाणो दृष्ट्रवा एवं कथापयति भो ! जीवितं कथं ज्वालयतः ते श्रेष्ठिने कथितं एषः मुनिवरः एवं कथयति । श्रेष्ठिना झंपाणो वालितः क्षुल्लकः प्ररष्टः गुरु पृष्ठे स्थितः-मृतकामानीय गुरु अग्रे मुचति श्रेष्टिगुरुचरणो शिरं निवेश्य एवं कथयति भोदयालु ! मम देवो रुष्ठः मम गृहो शून्यो भवति तेन कारणेन मम पुत्र भिक्षां देहि ? गुरुणा प्रासुक जलमानीय चरणौ प्रक्षाल्य तस्य छंटितं । सहसात्कारेण सज्जो बभूव हर्ष वादित्राणि वभूव । लोकैः कथितं श्रेष्टि पुत्र नूतन जन्मो आगतः। उपकेशगच्छ पट्टावली पृ० १५५ wwwwww.v.inwww. .... --0- - wwwww.. Jain Education Internal For Private & Personal Use Only ७३ www.jainelinary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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