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________________ वि० पू०४०० वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास vramanannonw इधर मंत्री उहड़ के एक पुत्र हुआ जिसका नाम त्रिलोक्यसिंह रखा था । भाग्यवशात् राजा उत्पलदेव ने नगर आबाद करवाने में मंत्री ऊहड़ का उपकार समम अपनी पुत्री सौभागसुंदरीका विवाह मंत्री पुत्र त्रिलोक्यसिंह के साथ कर अपने पर जो ऋण था उसे हलका कर दिया था। वे दम्पति आनन्द में अपना संसार निर्गमन कर रहे थे। थली प्रान्त में एक पीना जाति के सर्प होते हैं । लघु शरीर होने पर भी उसका विष गुरु होता है । जिस किसी को काटा हो तो फिर उसके जीवन की श्राशा कम ही रहती है। भाग्यवशात एक समय राजकन्या अपने पतिदेव की शय्या पर सो रही थी।रात्रि में अकस्मात् पीना सर्प ने मंत्रीपुत्र त्रिलोक्यसिंह को काट खाया। जिसका विष उसके सब शरीर में व्याप्त हो गया । जब राजपुत्री ने जागृत हो अपने पतिदेव के शरीर को विष व्याप्त पाषाणवत देखा तो एक दम दुःख के साथ रुदन करने लगी। जिसको सुन कर सब कुटुम्ब एकत्रित हुआ और कुमार की दशा पर करुणक्रन्दन करने लगा। इधर बहुत से मंत्र तंत्रवादियों को बुलाया गया। उन्होंने अपना-अपना उपचार किया पर उन सबके सबने निराश होकर कह दिया कि राजजमाई मृत्यु को प्राप्त हो गया । अब इसको शीघ्र अग्नि-संस्कार कर देना चाहिये। बस ! फिर तो दुःख का पार ही क्या था ? कारण इस प्रकार की मृत्यु उस समय बहुत कम होती थी। जिसमें भी मंत्रीपुत्र एवं राजजमाई की युवकवय में यकायक मृत्यु हो जाना बड़े ही दुःख की बात थी। नगर भर में हाहाकार मच गया। पर इसका उपाय भी तो क्या था ? उस मृत कुमार के लिये एक झापन (मंडी) बना कर उसमें बैठा कर श्मशान की ओर जाने लगे। इधर राजकन्या अपने पतिदेव के साथ जल कर सतित्व धर्म रखने के लिये अश्वारूढ़ हो माँपन के साथ हो गई। कई अज्ञ लोग नासमझी के कारण यह भी कह देते हैं कि रत्नप्रभसूरि एक शिष्य को साथ लेकर ओसियों में आये थे और वहाँ गौचरी नहीं मिलने से वह शिष्य जंगल से काष्ट भार लाकर उसको बेच कर अन्न लाकर रोटी बना कर सूरिजी को खिलाता था । वह कार्य इतना अर्सा किया कि उसके शिर के बाल उड़ कर टाट पड़ गई । एक दिन सूरिजी ने उस शिष्य के शिर पर हाथ दिया तो शिर पर कोई बाल नहीं पाया |अतः सूरिजी ने कारण पूछा शिष्य ने सब हाल सुनाया । अतः सूरिजी ने कुछ रुई मॅगा कर उसके सांप से राजपुत्र को कटवाया । बाद राजा वगैरह सूरिजी के पास आकर पुत्र जिलाने की प्रार्थना की तब सूरिजी ने उस साँप से राजपुत्र का विष वापिस खिंचवाया। इस प्रकार चमत्कार बतला कर राजा प्रजा के * पतिं वै राजपुत्र्यास्तु, पुत्रं राजमन्त्रिणः । दैवात्तत्राऽदशत् सर्पः, निष्फलः सकलो विधिः ॥ अद्यमानः श्मशानंतु, मृतो ज्ञात्वा जनेश्वसः भवितु भस्म साद्देवी, अश्वारूढ़ तु तं गता ॥ उपकेशगक्छ चरित्र अथ मंत्रेश्वर ऊहड़ सुतं भुजगेन दृष्टः । अनेक मंत्र वादिनः आहूताः परं न कोपि समर्थस्तैः कथितं अयं मृत दाघो दीयतां । तस्य स्त्री काष्ठभक्षणे स्मशाने आयाता, श्रेष्ठस्य महान दुःखो जातः । उपकेशगच्छ पट्टावली पृ० १८५ । maranwwwwwwwani Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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