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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
स्क भी घर नहीं पाया कि जिसके घर की जैन साधु भिक्षा ले सके । क्योंकि नगर के तमाम लोग मांसा हारी थे । और मदिरा पीते थे घर २ में मांस मदिरा का खूब गहरा प्रचार था। रक्त एवं हडिडयाँ घास कुस की भांति दृष्टिगोचर होती थी एवं मदिरा पानी की भाँति पीयी जाती थी। अतः साधु जैसे रिक्त हाथों गये थे वैसे ही वापिस लौट आये और तपोवृद्धि कर ध्यान में स्थित हो 'ज्ञानामृत भोजनम्' इस युक्ति को चरितार्थ कर रहे थे पर औदारिक शरीर वाले इस प्रकार आहार बिना कहाँ तक रह सकते हैं ?
उपाध्याय वीरधवल ने समय पाकर सूरिजी से निवेदन किया कि हे पूज्यवर ! साधुओं को तप करते को बहुत समय हो गया । सब साधु एक से भी नहीं होते हैं । अतः इस प्रकार कैसे काम चलेगा ? इस पर सूरिजी ने आज्ञा फरमा दी कि यदि ऐसा ही है तो यहां से विहार करो। इस बात को सुन कर उपाध्यायजी ने भी सब साधुओं को विहार की आज्ञा दे दी और साधुओं ने विहार की तैयारी कर ली। वहां की अधिष्टात्री देवीचामुंडा ने अपने ज्ञान द्वारा इस सब हाल को जान विचार किया कि श्राबुदाचल से देवी चक्र श्वरी के भेजे हुये महात्मा मेरे नगर में आकर इस प्रकार भूखे प्यासे चले जॉय इसमें मेरी क्या शोभा रहेगी। अतः देवीचामुण्डा ने सूरिजी के चरण कमलों में आकर प्रार्थना की कि हे प्रभो ! श्राप छपा कर यहो चतुर्मास करावे आपको बहुत लाभ होगा इत्यादि । इस पर सूरिजी ने अपने ज्ञान में उप. योग लगा कर देखा तो वास्तव में लाभ होने वाला ही था, देवी की विनती स्वीकार कर ली और साधुओं को आर्डर दे दिया कि जो विकट तपश्चर्या के करने वाले हैं मेरे पास ठहरें। शेष विहार कर सुविधा के क्षेत्र में चतुर्मास करें। इस पर कनकप्रभादि ४६५ साधु विहार कर कोरंटपुर की ओर चले गये और शेष ३५ साधु सूरिजी की सेवा में रहे, जो मास दो मास तीन मास और चार मास की तपश्चर्या करने में कटिबद्ध थे।
इधर तो सूरिश्वरजी अपने शिष्यों के साथ भूखे प्यासे जंगल की पहाड़ी पर ध्यान लगा रहे थे। उधर देवी ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा कर रही थी कि मैंने सूरिजी को वचन देकर चतुर्मास करवाया है तो इनके लिये कोई भी लाभ का कारण हो । ठीक है कि कार्य बनने को होता है तब कोई न कोई निमित्त भी मिल जाता है। ___यह बात तो आप पीछे पढ़ आये हैं कि राजपुत्र उत्पलकुमार ने अपनी मुसाफिरी के समय वैराटपुर के क्षत्रिय वीर संग्रामसिंह के यहां एक रात्रि मेहमान रह कर उनकी पुत्री जलणदेवी के साथ सम्बन्ध किया था। बाद आप उपकेशपुर आबाद करने के पश्चात् उनके साथ शादी कर ली थी। उसी जालन देवी के एक पुत्री हुई थी जिसका नाम सौभाग्यसुन्दरी रक्खा था। तस्मिन्नमकेशिपुरे पर्यन्तोद्यानसीमनि । सूरीणाँ तस्थुषाँ कोऽपि नाकार्षीद वन्दनादिकम् । तमानादरमालोक्य सूरीणं शासनामरी । गौरवार्थ शासनस्योत्सर्पणा यै मनो व्यधात् ॥ वतो देव्यार्थितः सूरि श्चातुर्मास्यंतु स्थीयताम् । एवंकृते महानलाभः प्राप्स्यते हित्वया प्रभो।
आदि देश मुनिः शिष्या, नत्र तिष्ठन्तु साधवः । उग्र तपः कर्तु कामा गच्छन्त्वन्येयदच्छया ॥ पंचत्रिंशतु मुनयः स्थितास्तत्र महोजसः। अन्ये विजह कोरंटपुरं चातुर्मास्यचिकीर्षया ।
उपकेशगच्छ चरित्र
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