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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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सब लोग आश्चर्यचकित हो गये । चारों ओर हर्ष के नाद एवं बाजे बजने लगे । और सबके मुंह से यही शब्द निकलने लगे कि आज इन महात्मा की कृपा से मंत्रीपुत्र ने नया जन्म लिया है । अर्थात् काल के गाल में गया हुआ राजजमाई जीवित हो गया है इत्यादि । अब तो नगर में सर्वत्र आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि और जैनधर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी।
. राजा और मंत्री ने सोचा कि महात्मा का अपने पर महान उपकार हुआ है तो प्रत्युपकार के लिये अपने को भी महात्मा का उचित सत्कार करना चाहिये । अतः उन्होंने अपने खजानचियों को हुक्म कर दिया कि तुम्हारे पास कोष में जितने बढ़िया से बढ़िया रत्न मणियां हो वह सूरिजी की भेंट कर दो । तत्पश्चात् महात्माजी की जयध्वनि और हर्ष वाजित्रों के साथ मंत्रीपुत्र को लेकर नगर की ओर चले गये और सर्व नगर में महान हर्ष के साथ सूरिजी की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। वे ही लोग क्या; पर चमत्कार को नमस्कार सर्वत्र हुआ ही करता है।
___ जब राजखजानचियों ने बहुमूल्य रत्नमणि आदि लेकर सूरिजी की सेवा में भेंट की तो सूरिजी सोचने लगे कि अहो संसार-लुब्ध जीवों की अज्ञानता कि जिस परिग्रह को ज्ञानियों ने अनर्थ का मूल बसलाया है संसार में जितने पौद्गलिक सुख दुख और तृष्णा है उनका मूल कारण परिग्रह ही है तथा मैं अनर्थ का मूल और संसार की वृद्धि समझ कर परिग्रह का त्याग कर आया हूँ। उसको ही संसारी लोग एक महत्व की वस्तु समम यहां लाकर मुझे खुश करना चाहते हैं इत्यादि, विचार करते हुए आप विशेष उदासीनता के साथ केवल ध्यान में ही मस्त रहे।
इस पर खजानचियों ने सोचा कि शायद् महात्मा इतने थोड़ा द्रव्य से संतुष्ट नहीं हुये हों, उन्होंने जाकर राजा एवं मन्त्री से कहा कि हमारी भेंट महात्माजी ने स्वीकार नहीं की है । अतः आप जो कुछ हुक्म फरमायें वैसा ही किया जाय ।
मन्त्री ने राजा से कहा कि अपनी बड़ी भारी गलती हुई है कि जिन महात्मा का अपने पर इतना बड़ा उपकार हुआ उनके लिये अपने नौकरों से भेंट करवाई। अतः खुद अपने को चलना चाहिये । बस, फिर तो देरी ही क्या थी १ चार प्रकार की सेना तैयार करवाई और सर्व नगर में इत्तला करवा दी। अतः बड़े ही समारोह से राजा मंत्री एवं नागरिक लोगों ने सूरिजी के चरण कमलों में आकर वन्दन कर नम्रता मार्गेकश्चिन्मुनिस्तत्र, प्रोवाच ताँस्तु वाहकान् कथं धक्ष्यन्ति जीवन्तमित्युक्त्वाऽन्द धौहिस ।। अन्वेषितो ऽपिसाधुः स न तेषां दृष्टिगोचरः ययुः सर्वे तदासूरे शरणं शोक विह्वला ॥ मृतकं तु समास्थाप्य ववन्दुस्ते यथा विधि पोचुश्च नम्र शिरसो रुदन्तो स्ते च वाहकाः ।। अस्माकं मृत्यु चौरेण, मुषित पुत्रौ महानिधि । जीवयत्वं मंत्रि पुत्र राजजामातथं च नः भवन्तो हि महात्मान शरणागत वत्सलः साध्नुवन्ति च कार्याणि साधव साधु दर्णना॥ एवं ब्रुवाणे लोकेतु तेषामन्यतमोमुनि । प्रोवाच दयया ताँस्तु उष्ण मानीयताँ जलम् ॥ मुने क्षालित चरणेन जलेन परिषेचनम् । कृतं मृतो परितदा सहसा जीबितोत्थित ॥ उवाच जनता तत्र हर्ष वादित्र निस्वनै । अद्य त्वया मंत्रिपुत्र ! लब्धं जन्म द्वितीयकम् ॥
'उपकेश गच्छ चरित्र
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