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[२०] सलाह देकर इस प्रन्थ की उपयोगिता बढ़ादी है । और प्रेस के और भी सज्जनों ने एवं फोरमेन आदि ने समय समय पर अच्छी सहायता पहुँचाई है अतः आप सजनों का नाम भी भूल नहीं सकते हैं।
उपरोक्त सज्जनों के अलावा भी इस ग्रन्थ लिखने एवं प्रकाशन करवाने में जिन जिन सज्जनों ने हमें सहायता पहुचाई है उन सबका मैं सहर्ष उपकार प्रदर्शित करता हूँ । ॐ शान्ति
ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय अब हम इस प्रन्थ का पाठकों को संक्षिप्त परिचय करवा देते हैं१-इस ग्रन्थ का नाम मैंने 'भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' क्यों रखा ? है कि इस ग्रन्थमें मुख्य विषय भगवान पार्श्वनाथ, की परम्परा में ८४ आचार्य हुए हैं उनका तथा उन आचार्योंके किये हुए शासन हितार्थ कार्यों को ही अग्र स्थान दिया है कारण इस विषय के आज पर्यन्त जितने ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं उनमें भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दृष्टिगोचर नहीं होता है यदि किसी ने लिखा भी है तो इतना ही कि 'भ० पार्श्वनाथ के छटे पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उपकेशपुर के क्षत्रियों कों प्रतिबोध देकर महाजन संघ की स्थापना की थी' पर बाद में भी पार्श्वनाथ के पट्टधर प्राचार्यों का हम पर कितना उपकार हुआ है कि जिन्होंने जैनधर्म की नीव ही क्यों पर जैनधर्म को जीवित रखा कह दिया जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती कारण आज जैनधर्म पालन करने वाले प्रोसवाल पोरवाल और श्रीमाल वंश है वे उन्हीं श्राचायों के बनाये हुए हैं इतना ही नहीं पर उन प्राचार्यों द्वारा स्थापन की हुइ शुद्धि की मशीन कह २००० वर्ष तक अपना काम करती रही जिसके जरिये लाखों नहीं पर करोड़ो अजैनों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर महाजनसंघ की अशातित वृद्धि की थी ऐसे जवर्दस्त उपकार करने वाले आचार्यों के उपकार को भूलजाना एक बड़ा से बड़ा कृतघ्नीपन कहा जा सकता है उस कृतघ्नीत्व के बनपाप से ही समज का पतन हो रहा है अतः मैंने उन आचार्यों का इतिहास लिख समाज के सामने रखा दिया है।
२-इस ग्रन्थ का नाम 'भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रखने से पाठक यह भूल न कर बैठे कि इस ग्रन्थमें केवल भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का ही इतिहास है पर इस ग्रन्थमें भगवान महावीर की परम्परा का इतिहास भी विस्तृत रूप से दिया गया है जितना भी मुझे उपलब्ध हुआ है । इनके अलावा भी जैनधर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाले अनेक विषय का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में यथा स्थान कर दिया गया है जिसको संक्षिप्त से बतला दिया जाता है।
३-राज-प्रकरण-इसमें महाराजा अश्वसेन के पश्चात् शिशुनागवंश, नंदवंश, सूर्यवंश, चन्द्रवंश, यादुवंश, मौर्यवंश, शुगवंश, विक्रमवंश, शकवंश चष्टानवंशके महाक्षत्रिप, कुशानवंश, गुप्तवंश', हुणवंश, वल्लभीवंश, चेटकवंश मगध का राजवंश, डांगदेश का राजवंश, कौसुवीराजवंश, कलिंगराजवंश, कौशलराजवंश, सिन्धुसौवीरा राजवंश इनके अलावा दक्षिण के जैनराजाओंका तथा परमार, चौलक्य, च वड़ा, राष्ट्रकूट, प्रतिहार, वगैरह जैन धर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाले राजाओं का वर्णन एवं वंशावलियों भी दी गई हैं
४-इस प्रकरण में वंश कुल वर्ण गौत्र जातियों का इतिहास लिखा गया है इनके अलावा खंडेलवाल, नरसिंघपुरा वघेरवालादि दिगम्बरों की जातियों तथा अग्रवाल पल्लीवाल महेसरी वगैरह कि उत्पत्ति
५-इसमें जैनागमों की वाचना का वर्णन है, द्वादशवर्षीय जन संहारक दुष्काल के अन्त में पाटली पुत्र में संघसभा और आगम वाचना । पुनः वज्रसूरि के समय भयंकर दुष्काल के अन्त में सोपार पट्टन में
आगम वाचना तीसरी मथुरानगरी तथा वल्लभी में आगम वाचना। आगमों के चारों अनुयोगद्वार पृथक् २ करना ८४ आगमों की संख्या ४५ आगमों के योगद्वाहन । जैन श्रमणों के लिये पुस्तके रखना एवं खोलना
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