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________________ आचार्य रखप्रभसरि का जीवन [वि० पू० ४०० वर्ष सष 'जीवों पर दया भाव रखना' और तू इसी 'अहिंसापरमोधर्म' का आश्रय ले इत्यादि । इस प्रकार सूरिजी कथित उपदेश से प्रतिबुद्ध हुई देवी सूरिजी को कहने लगी, हे प्रभो ! आपने मुझे संसार कूप में पड़ती हुई को बचायी है । हे प्रभो ! आज से मैं आपकी आधीनता स्वीकार करूंगी और आपके गण में भी व्रतधारियों का सांनिध्य करूंगी तथा यावच्चन्द्रदिवाकर आपका दासत्व ग्रहण करूंगी। किन्तु हे प्रातःस्मरणीय सूरिपुंगव ! आप यथा समय मुझे स्मरण में रक्खना और देवतावसर करने पर मुझे भी धर्मलाभ देना । अपने श्रावकों से कुकुम, नैवेद्य, पुष्प आदि सामग्री से साधार्मिक की तरह मेरी पूजा करवाना इत्यादि। दीघदर्शी श्रीरत्नप्रभ सूरि ने भविष्य का विचार करके देवी के कथन को स्वीकार कर लिया। क्योंकि सत्पुरुष गुणग्राही होते हैं। पापों को खंडित करने वाली वह चंडिका सत्य प्रतिज्ञा वाली हुई। यह जान उस दिनसे जगत में देवी का नाम 'सत्यका' प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर ने देवी को प्रतिबोध देकर सर्वत्र विहार करते हुये सवालाख से भी अधिक श्रावकों को प्रतिवोध दिया । -ऊहड़मंत्री का बनाया महावीर मन्दिर उपकेशपुरनगर में मंत्री उहड़ अपनी पुन्यवृद्धि के लिये एक नया मंदिर बना रहा था । पर दिन को जितना मन्दिर बनावे वह रात्रि में गिर जाता था। अतः विस्मय को प्राप्त हुये मंत्री ने तमाम दर्शनकारो को मन्दिर गिर जाने का कारण पूछा। पर उनमें से किसी एक ने भी समुचित उत्तर देकर मंत्री के भ्रमित मन को पापं नातः परं किंचित् , सर्व दर्शन विश्रुतम । तस्माज्जीव दयाधर्म, सारमेकं समाश्रय ॥ इत्यादिभिरुपदेशैः प्रबुद्धा प्राह हे प्रभो ! । भव कूपे पतयालो, हस्तालम्ब मदा मम ॥ इतः प्रभृति दासत्वं, करिष्येऽस्मि तव प्रभो ! । आ चन्द्राकं त्वद्गणेऽपि संनिध्यं वतिनामपि ॥ परमस्मि स्मरणीयाः ! स्मर्तव्या समये सदा । धर्मलाभः प्रदातव्यो, देवताऽवसरे कृते ॥ तथा कुंकुम नैवैद्य-, कुसुमादिभिरुद्यते । श्रावकैः पूजयध्वं माँ, यूयं साधमिकीमिव ॥ दीर्घ दर्शिभिरालोच्य, श्रीरत्नप्रभसूरिभिः । तद्वाक्य मुररी चक्रे, यत्सन्तो गुण कंक्षिणः ॥ सत्य प्रतिज्ञा जातेति, चण्डिका पाप खंडिका। सत्यकेति ततो नाम, विदितं भुवनेऽभवत् ॥ एवं प्रबोध्यताँ देवीं, सर्वत्र विहरन् प्रभुः। सपादलक्ष श्राद्धाना, मधिकं प्रत्यबोधयत् ॥ इतश्च श्रेष्ठी तत्राऽऽस्ते, ऊहड़ कृष्ण मन्दिरम् । कारयन्नतुलंनव्यं, पुण्यवान् पुण्य हेतवे । दिवा विरचितं देव, मंदिरं राज मन्त्रिणा । भिन्नत्वं प्राप्नुयाद्रात्रौ, ततो विस्मयता गतः ॥ अमाक्षीद्दार्शिकान् मंत्री, कथ्यतामस्य कारणम् । न कश्चिद्वचे तत्वज्ञः, सत्यं सत्यं वचस्तदा ॥ ततोऽपृच्छन्मुनि मन्त्री, कारणं च कृताञ्जलिः । प्रत्युवाच ततः सूरि, मंन्दिरं कस्य निर्मितम् ॥ नारायणस्य मन्त्रीति, प्रोवाचाचार्यमक्षरम् । तच्छ्रुत्वा मुनि शार्दूलः, प्रोवाच गिर मुत्तमाम् ॥ उपद्रवं नेच्छसिचेन्, महावीरस्य मन्दिरम् । कारयत्वं हे मन्त्रिन् । मदाज्ञाँ च गृहाणत्वम् । मन्त्रिणेवं कृते चैव, नाभूत् पुनरुपद्रवः । एव मालोक्य लोकास्च, सर्वे वित्मयतां गताः ॥ तन्मूल नायक कुते, श्री वीर प्रतिमाँ नवाम् । तस्यैव श्रेष्टिनो धेनोः, पयसा कत्तु मादृणात् ।। उपकेश गच्छ चरीत्र AAAAAAAAAAAAAAMAnnumerammmmmmmmmmmmunimamsin Jain Education International For Private & Personal Use Only wife afbrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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