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आचार्य सिद्धरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ६८२ - ६९८
आपसे सहन नहीं हो सकी अतः आप विहार करते हुए भरोंच नगर की ओर पधारे। श्रीसंघ ने श्रापका अच्छा स्वागत सत्कार किया और महामहोत्सवपूर्वक नगर प्रवेश करवाया ।
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बौद्धाचार्य्या बुद्धानन्द भी उस समय भरोंच में ही था । जिनानन्द को जीत लेने से उसका गर्व अहंकार खूब बढ़ गया था और आचार्य मल्ल के लिए यद्वा तद्वा शब्द कहने लगा । तब श्राचार्य मल्ल ने कहा कि केवल शब्द मात्र से जय पराजय का निर्णय नहीं होता है पर परीक्षा किसी राजसभा में ही हो सकती है । श्रुतः राजसभा में दोनों श्राचायों का शास्त्रार्थ होना निश्चय हुआ और ठीक समय पर राजा एवं पंडितों की सभा में शास्त्रार्थ शुरू हुआ। कई दिन शास्त्रार्थ चला, आखिर बौद्धाचार्य पराजि होगया अर्थात् बुद्धानन्द का निरानन्द होगया और आचार्य मल्ल का नाम मल्लवादीसूरि अर्थात् 'यथा माम तथा गुण' वाली कहावत चरितार्थ हो गई । उस समय से श्राप मल्लवादीसूरि के नाम से विख्यात होगये । आचार्य मल्लवादीसूरि ने अपने गुरु जिनानन्दसूरि को भरोंच में बुलाया और श्रीसंघ बड़े ही समारोह के साथ स्वागत किया। गुरु महाराज मल्लवादीसूरि की विजय एवं कुशलता देख कर श्रानन्दमय बन गये । इस प्रकार मल्लवादीसूरि महा प्रभाविक श्राचार्य हुए। और उन्होंने सर्वत्र विहार कर वादियों पर जबर्दस्त धाक जमादी और बहुत जैनों को जैन बना कर धर्म की प्रभावना
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उधर बुद्धानन्द जैनों के साथ द्वेष रखता हुआ भी अपने कष्ट क्रिया के बल से मर कर व्यान्तरदेव हुआ । उसने मल्लवादीसूरि के बनाये हुये नयचक्र तथा पदमचरित्र अर्थात् २४००० श्लोक प्रमाण वाला जैन रामायण नामक ग्रन्थ एवं इन दोनों प्रन्थों का अपहरण कर सदा के लिये नष्ट कर दिये । मरने पर भी दुष्टों की दुष्टरता नहीं जाती है। जिसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है । आचार्य मल्लबादीसूरि का समय के विषय प्रबंधकार खुल्लासा नहीं किया है पर अन्योन्य साधनों से श्राप का समय विक्रम की faat शताब्दी का अनुमान किया जा सकता है और उसी समय लाट सौराष्ट्रादि प्रान्तों में बोधो का जोर जमा हुआ था जिसको आचार्य मल्लबादीसूरि ने कम कर दिया था |
प्रबन्धकार आचार्य मल्लबादी और बोधों का शास्त्रार्थ भरोंच में हुआ बतलाते हैं तब अन्य स्थानों पर इस शास्त्रार्थ का स्थान बल्लभी नगरी बतलाया है और यह संभव भी हो सकता है कारण बल्लभी में बोधों के द्वारा आचार्य जिनानन्दसूरि का पराजय होने के ही कारण तीर्थ श्री शत्रुञ्जय बोद्धो के अधिकार में चला गया था और कई अर्सा तक जैनसंघ श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा से बंचित रहा था तदान्तर आचार्य मल्लबादी सूरि ने बोधों का पराजय कर पुनः तीर्थ शत्रुंजय स्वाधिन किया । श्राचार्य मल्लबादी जैनशासन में एक मल्ल ही थे आपका ज्ञान किरणों का प्रकाश चारों ओर पड़ रहा था बादियों पर तो इस कदर कि धाक जमगइ थी कि जैसे शेर के सामने गीदड़ भाग छूटते है जैसे ही मल्लबादीसूरि का नाम सुनते ही बादी कम्प उठते थे मल्लबादी सूरि ने सर्वत्र विहार कर फिर से जैनधर्म का सितार चमका दिया था । ऐसे ऐसे मद्दाप्रतिभाशाली आचायों से ही जिनशासन संसार में स्थिर रह सका है इति -
* वलभ्या; श्रीजिनानन्दः प्रभुरानाथितस्तदा । संघमभ्यर्थ्यं पूज्यः स्वः सूरिणा मल्लवादिना ॥ ६६ ॥ नवचक्रमहाग्रंथः शिष्याणां पुरवस्तदा । व्याख्यातः परवादीभकुम्भदन केसरी ॥ ६९॥ रामायणमुदाहरत् । चतुर्विंशति रेतस्य सहस्र
श्रीपद्मचरितं नाम
ग्रन्यमानताः ॥७०॥
मल्लबादी द्वारा बौद्धों का पराजय
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क० च०
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