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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
आचार्य रत्नप्रभरि उपकेशपुर में ५०० मुनियों के साथ पधारे थे, जिसमें ३५ मुनियों ने तो सूरीजी के पास में चतुर्मास किया था, शेष कनकप्रभादि ४६५ ने सूरिजी की आज्ञा से विहार कर दिया था। उन्होंने चल कर कोरंटपुर में चतुर्मास किया था औरआपके उपदेश से कोरंटपुर के श्रीसंघ ने अपने यहाँ एक महावीर का मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा का शुभमुहूर्त माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार ब्राह्ममुहूर्त और धनुर्लन में निकला । श्रतः कोरंटपुर के श्रीसंघ ने मुनि कनकप्रभ से प्रतिष्ठा के लिये कहा तो मुनिवर ने साफ कह दिया कि प्रतिष्ठा तो हमारे गुरुवर्य रत्नप्रभसूरि ही करावेंगे । श्रतः कोरंटपुर श्रीसंघ चल कर उपकेशपुर आया और सूरीजी से साग्रह विज्ञप्ति की कि प्रतिष्ठा के समय आप कोरंटपुर पधार कर प्रतिष्ठा करावें । सूरिजी ने कहा कि वह मुहूर्त यहाँ के मन्दिर की प्रतिष्ठा का है जो श्रापके यहाँ है । फिर हमारे से कैसे आाया जा सकेगा ?
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इस पर कोरंट संघ निराश हो गया। इतना ही क्यों पर उनके चेहरा भी उदास हो गया जिसको देख कर सूरिजी ने दीर्घ दृष्टि से विचार कर कहा कि महानुभावो ! आप उदास क्यों होते हो ? आप लोगों काही श्राह है तो आप प्रतिष्ठा की सब सामग्री तैयार रक्खो; प्रतिष्ठा के ठीक समय पर मैं वहां आकर आपके यहां भी प्रतिष्ठा करवा दूंगा, इत्यादि । इस पर कोरंटसंघ खुश हो सूरिजी को वंदनकर निज स्थान को चला गया और वहां जाकर प्रतिष्ठा की सब सामग्री जुटाने में दत्तचित्त से लग गया ।
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इधर सूरिजी महाराज ठीक लग्न के समय श्रीसम्पन्न उपकेरापुर में वीर बिम्बकी प्रतिष्ठा करवा रहे थे तत्प्रतिष्ठा विधानाय, संघाऽभ्यर्थनयाऽनया । प्रसीद भगवन्नेहि, पूरयाऽस्मन्मनोरथान् ।। तदेव लग्न विज्ञप्त, र वधार्य धियाँ निधिः । सूरिः प्रोचे कथं भव्याः ! घटतेऽस्माकमागमः ॥ यत्तत्राप्यत्र चैवैकं, लग्न ं शुद्धं तथाऽपरम् । तदत्रत्यं कथं त्यक्ता, मन्त्र ते ॥ तच्छ्रुत्वा सविषादाँस्तान् ब्रीड़ापन्नान् विलोक्यच । प्रभुराह मास्म सूर्य, विषीदत्त सुधा बुधाः ॥ देह क्यादेक लग्नत्वा, समं लम साधनम् । परमत्र साधयित्वा व्योम्नाऽऽयास्यामि तत्रहि ॥ कार्या प्रतिष्ठा सामग्री, भवद्भिः कृत निश्चयैः । यथा तत्रैव लग्न ेऽहं कुर्व्वे संघ समीहितम | ततः प्रोल्लसिताऽऽनन्दाः, श्रावकाः सूरिपुङ्गवम् । वन्दित्वा स्वपुरं जग्मुः, सङ्घायाऽऽचरव्युराशुते ।। ततः सर्वा पि सामग्री, प्रतिष्ठाया उपासकैः । मिलित्वा मीलयामासे; माघे मासे यथा विधि || ततः श्रीमत्युपकेशे, पुरे वीर जिनेशतुः । प्रतिष्ठाँ विधिनाऽऽधाय, श्री रत्नप्रभ सूरयः ॥ कोरंटकपुरे गत्वा, व्योम मार्गेण विद्यया । तस्मिन्नेव धनुर्लन े, प्रतिष्ठाँ विदधुर्वम् || श्री महावीर निर्वाणात्, सप्तत्या वत्सरैर्गतैः । ऊकेशपुर वीरस्य, सुस्थिरा स्थापनाऽजनि ॥ भूयोऽपि व्योम यानेन व्यावृत्याऽऽगत्य सूरयः। श्रष्ठिनं बोधयामासु, र्जिनस्नानार्चनक्रियाम || सक्रमादूहड़ श्रेष्ठी जिन धर्मधरोऽभवत । शुद्ध सम्यक्त्व भृत्तस्य परिवारोऽपि चाभवत् ॥ श्रीरत्नप्रभसूरीणा मागत्या ऽऽगत्य तस्थुषाम । मासकल्पास्तदान के व्यतीयुः कल्पसेविनाम || उपकेशपुर एवं सूरेः संयमिनस्तदा । विस्तरेण प्रभावस्य कालो ऽप्यनल्पताँ गतः ॥ भव्याब्ज बोधंकुर्वन्तं; तत्रस्थं सूरिभास्करम् । वीक्ष्व द्विजातमोद्यूक इव नोद्वीक्षितुं क्षमाः ।।
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