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________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उसी समय आकाश मार्ग अर्थात् वैक्रय लब्धि से दूसरा रूप बना कर उसी लग्न में कोरंटपुर जाकर वहां भी महावीरमन्दिर को प्रतिष्ठा करवा दी और कार्य होने के पश्चात् पुनः उपकेशपुर पधार गये । इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा का समय वीर निर्वाण के बाद ७० वें वर्ष का था अर्थात वीर निर्वाण के बाद ७० वर्ष माघ शुक्ल पंचम के दिन दोनों नगरों में भगवान महावीर की मूर्तियां स्थिर स्थापन की । धन्य है ऐसे जगतउद्धारक महात्माओं को कि जिन्हों का नाम विश्व में आज भी अमर है । इसके अलावा उपकेशगच्छ पट्टावलीकारों ने भी मंत्री ऊहड़ के बनाये हुए महावीर मंदिर तथा कोरंटपुर के महावीर मंदिर का संक्षेप में वर्णन किया है जो चारित्रकार के कथन से ठीक मिलता जुलता है। पूर्व श्रेष्टिना नारायण प्रासादं कारयि तुमारब्धं सदिवसो करोति रात्रौ पतति सर्वे दर्शनिनः पृष्टा न कोपि उपायो कर्थितं तेन रत्नप्रभाचार्यो पृष्टाः भगवान् मम प्रासादो रात्रौ पतति ! गुरुणां प्रोक्त कस्य नामेन कारयतः ? नारायणा नामेन । एवं नहीं महावीर नामेन कुरु मंगलं भविष्यति प्रासादस्य विघ्न न भविष्यति श्रेष्टिना तथैव प्रतिपन्न । अथ शासन देव्यां गुरुणां कथितं हे भगवन ! अस्य प्रासाद योग्यं मयादेव गृहात् उतरस्यां दिशी लूणाद्रहाभिधानं डुगरिकायां श्रीमहावीर विम्बं कारयितुमारब्धं । तत्र तेव श्रोष्टिना गोपाल वचनात् गोदुग्ध-स्राव कारणं ज्ञात्वा सर्वेपि दर्शनिनः पृष्ठाः तैः पृथक् पृथक् भाषया अन्यदान्वंदुक्त ततः श्रोष्टिना स आचार्योऽभिवंद्य पृष्टः ततः शासन देव्या वाक्यात् आचार्यों ज्ञात्वा एवं कथयति तत्र त्वात्प्रासाद योग्य विम्बो भविष्यति पर षट् मासैः सा सप्त दिनैः निष्कास नीय श्रेष्टि उच्छुक संजातः किंचिदूनैदिनैः निष्कासितः निंबु फल प्रमाण हृदयस्य ग्रन्थी द्वय सहितं । आचार्य प्रोक्त अद्यापि किंचित् असम्पूर्ण विम्वं विलम्ब स्व श्रेष्टिना प्रोक्त गुरुणा कर प्रासादात् सम्पूर्ण भविष्यति । तेनावसरे कोरंटकस्य श्रद्धाना आव्हानं आगतं भगवन् प्रतिष्ठार्थमागच्छ ? गुरुणा कथितं मुहूर्त बेलाया आगच्छामि । निजरूपेण उपकेशे प्रतिष्ठाकृता वैक्रय रूपेण कोरंट के प्रतिष्ठा कृता श्रादै द्रव्य व्यय कृताः ततस्तेन श्रेष्टिना श्री औपकेशपुरस्य श्रीमहावीर विम्व पूजा आरात्रिक स्नात्र करण देववन्दनादि विधिः श्री रत्नप्रभाचार्यात् शिक्षिता तदनंतर मिथ्यात्वा भवान् श्रावकत्वं केषांचित् श्रेष्टि सम्बन्धिनां संजातं ततः आचार्येण ते सम्यक्त्वधारी कृताः। सप्तत्य वत्सराणा चरम जिनपतेमुक्त जातस्य वर्षे । पंचम्या शुक्ल पक्षे सुरगुरु दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्य सकल गुण युक्तः सर्व संघानुज्ञातैः । श्रीमद्विरस्य बिम्बे भव शत मथने निर्मितेयं प्रतिष्ठाः ॥ उपकेशे च कोरंटे, तुल्य श्रीवीरविम्वयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्री रत्नप्रभ सूरिभिः॥ Jain Education Softional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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