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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्षे
वंशावलीकारों ने इस प्रतिष्ठा का विस्तार से वर्णन करते हुए फरमाया है कि इस प्रतिष्टा का जनता पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा था । क्यों न पड़े ! पहिले तो इस प्रान्त में यह जैन मंदिर और प्रतिष्ठा पहिले ही पहिल था, दूसरे नूतन बने हुए राजा प्रजा जैनों का उत्साह भी अपूर्व था, तीसरे द्रव्य की खुले हाथों छूट थी, चतुर्थ उन लोगों को जैनोपासकों की वृद्धि भी करनी थी, पंचम देवी चामुंडा की बनाई हुई अतिशय चमत्कारी मूर्ति छटे प्रतिष्ठा करवाने वाले महाप्रभाविक आचार्य रत्नप्रभसूरि और सातवां वह समय जैन धर्म के उदय का था एवं सात शुभ निमित्त कारण मिल गया। फिर तो कहना ही क्या था।
इस प्रतिष्ठा का ठाठ देख राजा उल्पलदेव का उत्साह और भी विशेष बढ़ गया और उसने भी नगर की पहाड़ी पर एक पार्श्वनाथ प्रभु का मंदिर बनाने का निश्चय कर डाला और वह केवल विचारमात्र ही नहीं पर तत्काल ही कार्य प्रारम्भ भी कर दिया।
ब्राह्मण पुत्र की घटना और सूरिजी का चमत्कार एक समय दैववशात् ब्राह्मणों में मुख्य एक कोट्याधीश ब्राह्मण के पुत्र को काले नाग ने डस लिया तो वह मृतप्राय हो गया । उसके पिता ने विष वैद्यों से अनेक जड़ी बूटियाँ श्रादि यंत्र मंत्र तंत्र से प्रेम पूर्वक उपचार कराया और भी अनेक उपाय किये परन्तु वे सब दुष्ट के साथ किये हुए उपकार के समान व्यर्थ हुए । अत: उस मृतप्राय ब्राह्मण पुत्र को पालकी में बैठा कर शोक से विह्वल तथा विलाप करते हुए उसके पिता आदि ब्राह्मण श्मशान पर चले ! सूरिजी ने धर्म की उन्नति के लिये, उस ब्राह्मण कुमार को जिन्दा जान कर शोक विह्वल उसके पिता को अपने पास जल्दी ही बुलवाया और कहा हे ब्राह्मण ! यदि तेरा पुत्र पुनर्जीवन प्राप्त कर ले तो तुम लोगक्या करोगे ? ब्राह्मण ने उत्तर दिया मैं आजन्म अापका दास बन कर रहूँगा और मानो पूज्यवर ! आपने मुझे सकुटुम्ब को जीवन दान दिया हो ऐसा मानूंगा। विशेष क्या ? आप ही मेरे पिता, माता, स्वामी और देवता स्वरूप हैं।
___ ब्राह्मण के ऐसा कहने पर सूरिजी ने अपने पैर धोये और जल को उसे देकर भेजा । ब्राह्मण ने पुत्रको शवारोही पालकी से उतार चारों तरफ से उसका अभिसिंचन किया। अमृत तुल्य उस जल से अभिसिंचन हुआ ब्राह्मण कुमार विष रहित हो निद्रा से जगे प्राणी के तमान बैठा हो गया और पिता से पूछा कि यह क्या * तदा मुख्य ब्राह्मणस्य धन कोटी शितुः सुतः । दुष्ट कृष्णाऽहिनादंष् टोमृत कल्पइबाऽभवत् ॥ पिताऽगदै र्जाङ्गलिकै रुपचारत्समादरात् । धनैरुपायैस्तद् व्यर्थ मासी दिव खले कृतम् ॥ शिविकायाँ तमारोप्य क्रन्दन्तः शोक विह्वलाः । पितृ प्रभृतयो विपाश्चेलुः प्रेत वनोपरि । धर्मोन्नत्यै सूरयोऽपि, त्त विदित्वा सजीवितम् । शीघ्रमाकारया मासु, स्तत्तातं शोक संकुलम्॥ पूज्यै रुक्त त्वत्सुतश्चे, दुज्जीवति ततो भवान् । किंकरोति स आहत्वत् , किंकरो जीवितावधि। सकुटुम्बस्य मे पूज्य, दत्तस्याज्जीवितं तथा। किमन्यत्त्वं पितामाता, त्वं स्वामी त्वं च देवता।। स्वपादक्षालन जलं, दत्वा प्रेषीत्ततोद्विजः । शिविकायाः समुत्तायोऽभ्यषिञ्चत् सर्वतः सुतम ॥ पीयूषेणेव तेनाऽथ, संसिक्तः पादवारिणा । विष मुक्तः समुत्तस्थौ, गतनिद्र इवाङ्गवान् ॥ किमेतदिति पृच्छन्तं, तातस्तत्सुतम् ब्रवीत् । वत्स! स्वच्छाशय ! भवान्, यममुख गतोऽभवत्॥ परं कृपा वारिधिभिः, सूरिभिर्गुण भूरिभिः । वितीर्णं सकुटुम्बस्य, तवमेऽपि च जीवितम ॥
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