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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
ब्राह्मण और
है ? ब्राह्मण अपने पुत्र के वचन को सुनकर बोला कि हे शुद्धान्तःकरण वाले मेरे वत्स ! आज तू मृत्यु के मुख में पहुँच गया था । परन्तु कृपा के सागर महागुणो के आगर पूज्यचरणसूरिजी ने सकुटुम्ब मेरा और तेरा पुनः जीवनदान किया है । ब्राह्मण पुत्र ऐसी सरस वाणी को सुनते ही प्रणाम करने की इच्छा से वहां से उठ कर सब ब्राह्मणों सहित गुणों में श्रेष्ठ गुरुजी के पास गया। वहां जा कर और सूरिजी को आदर सहित देख कर मस्तक के केशों को उनके पैरों में लुटाता हुआ भक्तिपूर्वक स्वयं पृथ्वीतल पर लोटता हुआ उनके पैरों की बन्दना करने लगा और बोला हे भगवन ! मुझे जीवन दान देके आज आपने श्रमण ( जैनी सन्यासी ) के आपसी चिरकाल के वैर को भुला दिया । हे गुरो ! आज से आप वैश्यों के तुल्य हमारे भी पूज्य हो । इस वचन को तत्रास्थित अन्य ब्राह्मण समुदाय ने भी अंगीकार किया। उस दिन से ले कर सारे ब्राह्मण श्रावक वैश्यों के समान ही पूज्य सूरिजी का गौरव करने लगे और उनकी श्राज्ञा का श्रादर करने लगे । इस प्रकार अठारह हजार ब्राह्मणों आदि को प्रतिबोध कर जैन बनाये । जिससे जैन संख्या में वृद्धि और धर्म की खूब प्रभावना हुई इस प्रकार आचार्य श्री ने अनेक स्थानों पर जैन बना कर मारवाड़ जैसा वाममार्गियों के प्रदेश को जैनमय बना दिया पट्टावलीकारों ने इन सब को मिला कर ३८४००० घरों की संख्या बतलाई है वह ठीक ही है ऋतु । आचार्य रत्नप्रभसूरि की सर्वत्र भूरि भूरि प्रशंसा हो रही थी ।
चार्य रत्नप्रभसूर के लिये यह दूसरी बार का मौका था क्योंकि पहले मंत्रीपुत्र की घटना ऐसी ही बनी थी उसके बाद देवी को प्रतिबोध दिया तत्पश्चात मंत्री ऊहड़ के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई बाद यह ब्राह्मण के पुत्र की घटना घटी। यही कारण है कि ब्राह्मण लोग कह रहे हैं कि हे पूज्यवर हम ब्राह्मण भी वैश्यों की भाँति आपके उपासक हैं इससे यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मणपुत्र की घटना के पूर्व श्राचार्य श्री ने उपकेशपुर में राजा मंत्री क्षत्री एवं वैश्य (व्यापारी) लोगों को जैन धर्म में दीक्षित कर पाये थे अतः किसी को यह भ्रान्ति न हो जाय कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने केवल ब्राह्मण पुत्र को जिला कर १८००० लोगों को ही जैन बनाये थे ? पर यह घटना तो बाद में दूसरी बार घटी थी और इस प्रकार सूरिजी ने अपने जीवन में १४००००० नये जैन बनाये थे जो इस ग्रन्थ के पढ़ने से विदित हो जायगा ।
इतिश्रुत्वा (सरसT) समुत्थाय विविन्दिपुः । गुरून् गुण गुरून विमः, सर्व विप्र समन्वितः ।। भूपीठे विलुठन भक्तया, सूरीन वीक्ष्य ससादरम् | पादौ ववन्दे मौलिस्थ, केश प्रोच्छन पूर्वकम ।। अबादी दद्य भगवन, जीवितं ददता मम । विम श्रमणयोवरं, मिति मिथ्या कृतं वचः || इतः प्रभृतिनः पूज्या, गुखो वणिजामिव । अन्यैरपि तदा विप्रै, स्तदुक्तं बह्वमन्यत ॥ तदा प्रभृति सर्वेपि ब्राह्मणः श्रावका इव । तद्गौरवं विदधिरे तदाज्ञाँ नावमेनिरे ॥ एवं प्रभावयन्तस्ते, सुरयो जैन शासनम् । अष्टादश सहस्त्राणि: जङ्घानाँ प्रत्यबोधयत् ॥
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