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________________ . . . ४७ ] का गिरजाने से दर्पण में अंगुली अनिष्ट दीखने लगी तब स्वयं दूसरे भूषण उतारते गये वैसे ही शरीर स्वरूप भयंकर दिखाई देने लगा बस ! वहां ही अनित्य भावना और शुक्लध्यान क्षपकश्रेणि आरूढ़ हो विल्यज्ञान प्राप्त कर लिया बाद देवतों ने मुनिवेष दे दिया दश हजार राजपुत्रों को दीक्षा दे आपने कई वर्ष कि जनता का उद्धार कर आखिर मोक्ष में अक्षयसुख में जा विराजे ।। भरत महाराज चक्रवर्ती राजा था इनो के बहुत सी ऋद्धि थी पर इनका अन्तरआत्मा सदेव पवित्र हता था एक समय भरत ने आदेश्वर भगवान से पूछा कि हे प्रभो ! मेरा भी कभी मोक्ष होगा १ भगवान् कहा कि भरत ! तुम इसी भव से मोक्ष जावोगे । इतने में किसी ने कहा कि वहा बाप तो मोक्ष देने वाला पौर पुत्र मोक्ष जाने वाला जिस भरत के इतना बड़ा भारी आरंभ परिग्रह लग रहा है फिर मी इसी भव में मोक्ष हो जावेगा क्या अाश्चर्य है इस पर भरतने चौरासी बजारों के अन्दर सुन्दर न्दिर नाटक मंडा दिये और आश्चर्य करने वाले के हाथ में एक तेल से पूर्ण भरा हुआ कटोरा दिया और चार मनुष्य नंगी तलवार वालों को साथ कर दिया कि इस कटोरा से एक वूद भी तेलगिर जावे तो इसका शिर बाट लेना, ( यह धमकी थी ) बस ! जीवका भय से उस मनुष्य ने अपना चित्त उसी कटोरे में रखा न तो उसको मालुम हुआ कि यह नाटक हो रहा है ? न कोई दूसरी बात पर ध्यान दिया, सब जगह फिर के गापिस आने पर भरत ने पूछा कि बजारों में क्या नाटक हो रहा है ? उसने कहा भगवान् मेरा जीव तो इस तेल के कटोरे में था मैंने तो दुसरा कुछ भी ध्यान नहीं रखा भरत ने कहा कि इसी माफिक मेरे प्रारंभ परिग्रह बहुत है पर दर असल उसमें मेरा ध्यान नहीं है मेरा ध्यान है भगवान् के फरमाया हुआ तत्त्वज्ञान में यह दृष्टान्त हरेक मनुष्य के लिये बड़ा फायदामंद है इति । पहले का उदाहरण । भरत के मोक्ष होने के बाद भरत के पाट आदित्ययश राजा हुआ और बाहुबल के पाट चंद्रयश राना हुआ इन दोनों राजाओं की संतान से सूर्यवंश और चन्द्र वंश चला है और कुरु राजा की संतान से कुरुवंश चला है जिसमें कौरव पांडव हुए थे। भरत के पास कांगणी रत्न था जिससे ब्राह्मणों के तीन रेखा लगा के चिन्ह कर देता था पर श्रादित्यबस के पास कांगणी न होने से वह सुवर्ण कि जनेउ दे दिया करता था बाद सोना से रूपा हुश्रा रूपा से शद्ध पंचवर्ण का रेशम रहा बाद कपास के सूत की दी जाति थी वह आज पर्यन्त चली आती है। भरत राजा के आठ पाट तक तो सर्व राजा बरावर भारीसाके भुवन में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गले और भी भरत के पाट असंख्य राजा मोक्ष गये अर्थात् भगवान् ऋषभदेव का चलाया हुवा धर्म: सन पचास लक्ष कोड़ सागरोपम तक चलता रहा जिस में असंख्यात जीवों ने अपना आत्मकल्याण कि मा इति प्रथम तीर्थक्कर, (२) श्री अजितनाथ तीर्थंकर-विजय वैमान से तीन ज्ञान संयुक्त वैशाख शुद १३ को अयोध्या के जयशत्रु राजा की विजयाराणी की रत्नकुक्षी में अवतीर्ण हुवे । माता ने चौदह स्वप्ने देखे जिसका ल राजा व स्वप्नपाठकों ने कहा माता को अच्छे अच्छे दोहले उत्पन्न हुवे उन सबको राजा ने सहर्ष कये बाद माघ शुद ८ को भगवान का जन्म हुवा छप्पन्न दिग्कुमारि देवियों ने सूतिका कर्म किया और इन्द्रमय देवी देवताओं के भगवान् को सुमेरु गिरिपर लेजा कर जन्माभिषेक स्नात्रमहोत्सव किया तद राजा ने भी बड़ा भारी आनंद मनाया युवकवय में उच्च कुलीन राजकन्याओं के साथ भगवान् का महण करवाया भगवान् का शरीर सुवर्ण कान्तिवाला ४५० धनुष्य प्रमाण गजलंच्छन कर सुशोभित व सांसारिक यानि पौद्गलिक सुखों से विरक्त हुवे उस समय लोकान्तिक देवों ने भगवान से अर्ज करी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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