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________________ [ ४६ ] लोक उनको महाण ब्राह्मण अर्थात् जैनसिद्धान्तोंमें ब्राह्मणोको माहण शब्द से ही पुकारा है अनुयोगद्वारसूत्र में ब्राह्मणों का नाम “वुदसावया" वृद्धश्रावक भी लिखा है। जब ब्राह्मणों की संख्या बढ़ गई तब भरत ने सोचा कि वह सिधा भोजन करते हुए प्रमादी पुरुषार्थ हीन न बन जावे वास्ते उनके स्वाध्याय के लिये भगवान् श्रादीश्वर के उपदेशानुसार चार आर्य वेदों * की रचना करी उनके नाम (१) संसारदर्शनवेद (२) संस्थापनपरामर्शनवेद (३) तत्वबोधवेद (४) विद्याप्रबोध वेद इन चारों वेदों का सदैव पठन पाठन ब्राह्मणलोक किया करते थे और जनता को उपदेश भी दिया करते थे तथा छे छे मास से उनकी परीक्षा भी हुआ करती थी। आगे नौवां सुत्रिधिनाथ भगवान के शासन में हम बदलावेंगे कि ब्राह्मणों ने उन आर्य वेदों में कैसा परिवर्तन कर स्वार्थवृत्ति और हिंसामय वेद बना दिया । भगवान् ऋषभदेव का सुवर्णकान्तिवाला ५०० धनुष्य व वृषभ का चिन्हवाला शरीर या ८४ लक्ष पूर्व का आयुष्य था जिसमें ८३ लक्ष पूर्व संसार में १००० वर्ष छग्रस्थपने और एक हजार वर्ष कम एकलक्ष पूर्व सर्वज्ञपणे भूमिपर विहार कर असंख्य भव्यात्मानों का कल्याण किया अर्थात् जैनधर्म अखिल भारत व्याप्त बना दिया था । श्राप आदि राजा, श्रादि मुनि, आदि तीर्थकर, श्रादि ब्रह्मा, आदि ईश्वर हुए पुंडरिक गणधर तो पांचक्रोडी मुनियों के परिवार से पवित्र तीर्थ श्रीशजय पर मोक्ष गये जिस शāजय पर भगवान् ऋषभदेव ननाणु पूर्ववार समवसरे थे अन्त में भगवान् ! अष्टापद पर्वत पर दशहजार मुनियों के साथ माघ वदी १३ को निर्वाण पधार गये इस अवसर पर शेक युक्त इन्द्रों ने भगवान का निर्वाण कल्याणक किया भगवान् के शरीर का जहां पर अग्निसंस्कार किया था। वहां पर इन्द्र ने एक रत्नों का विशाल स्तूप बनवा दिया और एक एक गणधर व मुनियों के स्थान भी स्तूप बंधवाया था भगवान् के दाडों व अस्थि इन्द्र व देवता ले गये थे और उनका पूजन प्रक्षालन वन्दन भक्ति जिनप्रतिमा के तुल्य किया करते हैं। जैसे एक सर्पिणी काल में २४ तीर्थकर होने का नियम है वैसे ही १२ चक्रवर्ति राजा होने का भी नियम है । इस काल में बारह चक्रवर्ति राजाओं में यह भरत नामा चक्रवर्ति पहला राजा हुआ है इन की ऋद्धि अपरम्पार है जैसे चौदह रत्न के नौनिधान + पच्चीस हजार देवता वत्तीस हजार मुकटबंध राजा सेवा में चौरासी हजार २ हस्ती रथ अश्व-छन्नक्रोड पैदल और चौसठहजार अन्तरादि । छे खंड साधन करते हुए को ६० हजार वर्ष लगा था ऋषभकूट पर्वत पर आप के दिग्विजय की प्रशस्तिएं भी अंकित की गई थीं उस समय के आर्य अनार्य सब ही देशों के राजा आप की आज्ञासादर शिरोधार्य करते थे और आर्य-अनार्य राजाओं ने अपनी पुत्रियों का पाणिप्रहन भी सम्राट के साथ किया था इत्यादि जो आज पर्यन्त इस आर्यव्रत का नाम भारतवर्ष है वह इसी भरत सम्राट् कि स्मृति रूप है । __भरत सम्राद् ( चक्रवर्ति ) ने छे खंड में एक छत्र न्याययुक्त राज कर दुनिया की बड़ी भारी आबादी (उन्नति ) करी आपने अपने जीवन में धर्म कार्य भी बहुत सुन्दर किया अष्टापद पर चौबीस तीर्थकरों के चौबीस मन्दिर और अपने ९८ भाइयों का "सिंहनिषद्या" नामका प्रासाद, श्री शत्रुजयतीर्थ का संघ और भी अनेक अनेक सुकृत कार्य कर अन्त में पारिसा का भुवन में आप विराजमान थे उस समय एक अंगुली से * सिरि भरत चक्वटी आरिय वेयाणवि स्सु उत्पत्ती, माहण पडणास्थमिण, कहियं सुहझोण ववहारं ॥ १ ॥ जिण तित्थे बुच्छिन्ने, मिच्छते माहणेहिं ते उविया ॥ भस्संजयाणं पूआ, अप्पणं काहिया तेहिं ॥ २ ॥ ॐ नौनिधान नैसर्ग, पांडक, पिंगळ सर्वरत्न, पद्म महापद्म, माणव, संक्ख ! काल + चौदह रत्न-सैनापति, गाथापति, घडाई पुरोहित, स्त्रि, हस्ती, अश्व, चक्र, छत्र, चामर, मणि, कांगणि, असी, बरखा एवं १४ रन थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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