SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४५ ] प्रकार का युद्ध हुए पर बाहुबली पराजय नहीं हुआ अन्तमें मुष्टियुद्ध हुआ बाहुबली ने भरत पर मुष्टि हार करने को हाथ उँचा कर तो लिया पर फिर विचार हुआ कि हो संसार असार है एक राज के लिये वृद्ध बन्धु को मारने को तैयार हुवा हूँ बस उंचा किया हुआ हाथ से अपने बालों का लोच कर आप दीक्षा धारण कर ली पर भगवान् के पास जानेमें यह रूकावट हुई कि - भरत बाहुबली के पहिले ९८ भाईयों के पास दूत भेजा था तब ९८ भाइयोंने भगवान् के पासमें जाकर अर्ज करी कि हे दयाल ! आपका दिया हुवा राज हमसे भरतराजा छीन रहा है वास्ते श्राप भरत को बुला के समझा दो इस पर भगवान ने उपदेश किया कि हे भद्र ! यह तो कृत्रिमराज है पर श्री मेरे पास में तुम को अक्षयराज देता हूँ कि जिसका कभी नाश ही नहीं हो सकेगा इस पर ९८ भाईयोंने भगवान् के पास दोक्षा ले ली - बस बहुबलीने सोचा कि में उन छोटे भाईयों को वन्दना कैसे करू अर्थात् उन लघु बन्धुओं को नमस्कार करना नहीं चाहता हुश्रा जंगल में जा कर ध्यान लगा दिया जिसको एक वर्ष हो गया । उनके शरीर पर लताओं वेल्लियो और घास इतना तो छा गया कि पशुपक्षीयोंने वहां अपना घोसले बना लिया। इधर भगवान् ने बाहुबल ऋषिको समझाने के लिये ब्राह्मी तथा सुन्दरी साध्वियों को भेजी वह आकर भाईयों को कहने लगी "वीरा म्हारा गजथ की उतरो, गज चढियो केवल नहीं हो सीरे" यह सुनके बाहुबली ने सोचा कि क्या साध्वियां भी असत्य बोलती है ! कारण की मैं तो गज तुरंग सत्र छोड़के योग लिया है परजब ज्ञान दृष्टि से विचारने लगा तब साध्वियों का कहना सत्य प्रतीत हुआ सच्च ही मैं मानरूपी गजपर चढा हूँ ऐसा विचार ९८ भाईयोंको वन्दन करने की उज्वल भावना ज्यों कदम उठाया कि उसी समय बाहुबलीजी को कैवल्यज्ञान उत्पन्न हो गया वहाँ से चलके भगवान् के पास जाके भगवान्‌को प्रदक्षिना कर केवली परिषदामे सामिल हो गये । इधर भरत सम्राट् ने सुना कि मेरे राज लोभ के कारण ९८ भाईयों ने भी भगवान् के पास दीक्षा ले ली है हो मेरी कैसी लोभदशा कि भगवान् के दीये हुवे राज भी मैंने ले लीया भगवान् क्या जानेगा इत्यादि पश्चात्ताप करता हुआ विचार किया कि मैं ९८ भाईयोंके लिये भोजन करवा कर वहाँ जा मेरे भाइयों को भोजन जीमा के क्षमा की याचना करू वैसे ही बहुत से गाडा भोजन से भरकर भगवान् के समवसरण में श्राया भगवान् को वंदन कर अर्ज करी कि प्रभो ! हमारे भाईयों को श्राज्ञा दो कि मैं भोजन लाया हूँ वह भोजन करके मुझे कृतार्थ करें भगवान् ने फरमाया कि हे राजन् ! मुनियों के लिये बनवाया हुआ भोजन मुनियों को करना नहीं कल्पता है इस पर भरत बडा उदास हो गया कि अब इस भोजन का क्या करना चाहिये ? उस समय इन्द्र ने फरमाया कि हे भरतेश ! यह भोजन श्रापसे गुणी हो उसको करवा दीजिये तब भरत ने सोचा कि मैं तो प्रति सम्यष्टि हूँ मेरे से अधिक गुणवाले देशव्रती हैं तब मरत ने देशव्रती उत्तम श्रावकों को बुलवा कर वह जन उनको करवा दिया और कह दिया की आप सब लोग यहां ही भोजन किया करो बस फिर क्या था ? सिधा प्रोजन जीमने में कौन पीछा हटता है फिर तो दिन व दिन जीमनेवालों कि संख्या इतनी बढ़ने लगी कि रसोया बरा उठा जिससे भरत महाराज को सबहाल अर्ज किया तब भरत ने उन उत्तम श्रावकों के हृदय पर कांगनी रत्नले न तीन लीक खांच के चिन्ह कर दीया मानों वह "यज्ञोपवित" ही पहना दी थी भोजन करने के बाद उन को भरत ने कह दिया की तुम हमारे महेल के दरवाजा पर खडे रह कर, हरसमय “जितोभगवान् ते भयं तस्मान्माहन माहने" एसा शब्दोच्चारन किया करो श्रावकों ने इसको स्वीकार कर लिया इसका तलब यह था कि भरतमहाराज सदव राज का प्रपंच व सांसारिक भोगबिलास में मग्न रहता था जव कभी के शब्द सुनता तब सोचता था कि मुझे क्रोध मान माया लोभने जीता है और इनसे ही मुझे भय है इससे को बड़ा भारी बैराग्य हुआ करता था जब वृद्ध श्रावक वारवार माहन माहन शब्दोच्चार करते थे इससे Jain Education International janelbrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy