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[४४ ] के रन सुवर्णमय २४ मन्दिर बनाके उसमें तीर्थंकरों के नाम वर्ण और देहमान प्रमाणे मूर्तियाँ बनवा के स्थापन करवा दी वह मन्दिर भगवान महावीर के समय तक मौजूद थे जिनकी यात्रा भगवान् गौतम स्वामी ने की थी। इतना ही क्यों पर विक्रम की दशवीं शताब्दी में वीराचार्य ने भी यात्रा की थी।
भगवान्के साथ ४००० राजकुमारों ने दीक्षा ली थी जिनमें भरतका पुत्र मरिचीकुमार भी शामिल था पर मुनिमार्ग पालनमें असमर्थ हो उसने अपने मनसे एक निराले वेषकी कल्पना कर ली जैसे परिव्राजक सन्यासियोंका वेष है। पर वह तत्वज्ञान व धर्म सब भगवान् का ही मानता था अगर कोई उसके पास दीक्षा लेनेको श्राता था तब उपदेश दे उसे भगवान के पास भेज देता था एक समय भरतने प्रश्न किया कि हे प्रभु ! इस समवसरणके अन्दर कोइ ऐसा जीव है कि वह भविष्यमें तीर्थकर हो ? भगवान्ने उत्तर दिया कि समवसरणके बाहर जो मरिची बैठा है वह इसी अवसर्पिणीके अन्दर त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव व विदेहक्षेत्र की मूका राजधानीमें प्रियमित्र नामका चक्रवर्ति और भरत में कर चौबीसवां महावीर नामका तीर्थकर होगा यह सुन भरत, भगवान को बन्दन कर मरिचीके पास आकर वन्दना करता हुवा कहने लगा कि हे मरिची ! मैं तेरे इस वेषको वन्दना नहीं करता हूँ परंतु वासुदेव चक्रवर्ति और चरम तीर्थकर होगा वास्ते भावि तीर्थकर को मैं वन्दना करता हूं यह सुन मरिचीने मद (अहंकार) किया कि अहो मेरा कुल कैसा उत्तम है ? मेरा दादा तीर्थ कर मेरा बाप चक्रवर्ति और मैं प्रथम वासुदेव हूँगा इस मदके मारे मरिचीने नीच गोत्रोपार्जन किया । एक समय मरिची भगवान् के साथ विहार करता था कि उसके शरीरमे बीमारी हो गइ पर उसे असंयति समम किसी साधुने उसकी वैयावृत्य नहीं करी तब मरिचीने सोचा कि एक शिष्य तो अपनेको भी बनाना चाहिये कि वह ऐसी हालतमें टहल चाकरी कर सके ? बाद एक कपिल नामका राजपुत्र मरिचीके पास दीक्षा लेनेको या मरिचीने उसे भगवान के पास जानेको कहा पर वह बहुलकर्मि कपिल बोला की तुमारेमत से भी धर्म है या नहीं इस पर मरिची ने सोचा कि यह शिष्य मेरे लायक है तब कहा कि मेरे मत में भी धर्म है और भगवान् के मतमे भी धर्म है इस पर कपिलने-मरिचीके पास योग ले सन्यासी का बेष धारण कर लिया मरिचीने इस उत्सूत्र भाषण करने से एक कोड़ाकोड़ सागरोपम संसार की वृद्धि करी । मरिची का देहान्त होने के बाद कपिल मरिची की बतलाई हुई ज्ञानशुन्य क्रिया करने लगा इस कपिल के एक आसूरि नामका शिष्य हुवा उसने भी ज्ञानशून्य मार्गका पोषण किया क्रमशः इस मतमें एक सांख्य नामका आचार्य हुआ था उसी के नाम पर सांख्य मत प्रसिद्ध हुआ।
भगवान् ने दीक्षा समय पर सब पुत्रों को अलग २ देशों का राज दिया था उस समय नमि विनमि वहां हाजर नहीं थे बाद में वह आये और खबर हुई कि भगवान् ने सब को राज दे दिया अपुन भाग्यहीन कोरे रह गये ऐसा विचार कर वह भगवान् के पास आये कितने ही दिन प्रमुके पास रहे परन्तु भगवान् ने तो मौन ही साधन किया उस समय धरणेन्द्र भगवानको पन्दन करने को आया था उसने नमि विनमी को सममा के ४८००० विद्याओं के साथ वैतात्यगिरिका राज्य दिया फिर नमीने उत्तर श्रेणिमें ६० नगर और विनमिने दक्षिण श्रेणिपर ५० नगर वसाके राज करने लगे और वे विद्याधर कहलाते हैं क्रमशः उनके वंश में रावण कुंभकरण सुप्रीव पवन हनुमानादि हुये हैं वह सब इन दोनोंकी संतान है।
___सम्राट भरतने जब के खण्ड में दिगविजय करके श्राया तब भी चक्ररत्नने पायधशालामें प्रवेश नहीं किया इसका विचार करने से ज्ञात हुवा कि बाहुबलमे अभी तक हमारी (भरतकी, आज्ञा स्वीकार नहीं करी तब दूत को तक्षशिला भेमके बाहुबली को कहलाया कि तुम हमारी बाबा मानो, इस पर बाहुबलीने भस्वीकार कीया तब दोनों भाइयों में पुट की सध्यारी हुई अन्य लोगों का नारा न करते हुवे दोनों भाइयों में
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