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( घोषणा ) पांच वर्णके घुटने प्रमाणे पुष्प तीनछत्र चौसठ इन्द्र दोनों तर्फ चमर कर रहे इत्यादि असंख्य देव देवी नर विद्याधरोसे पूजित जिनके गुण ही अगम्य है ?
इधर माता मरूदेवा चिरकालसे ऋषभदेवकी राह देख रहीथी कभी कभी भरतको कहा करती थी कि भरत ! तु तो राज में मन हो रहा है कभी मेरे पुत्र ऋषभ की भी खबर मंगवाई है? उसका क्या हाल होता होगा ? इत्यादि।
___ भरत महाराज के पास एक तरफ से पिताजीको कैवलयज्ञानोत्पन्न की बधाई प्राइ, दूसरी तरफ आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न होने की खुशखबरी मिली, तीसरी तरफ पुत्र प्राप्ति की बधाई मिली. अब पहला महोत्सव किसका करना चाहिये ? विचार करने पर यह निश्चय हुआ कि पुत्र और चक्ररत्न तो पुन्याधीन है इस भवमें पौद्गलिक सुख देने वाला है पर भगवान् सच्चे आत्मिक सुख अर्थात् मोक्ष मार्ग के दातार हैं वास्ते पहिले कैवल्यज्ञानका महोत्सव करना जरूरी है इधर माता मरूदेवा को भी खबर दे दी कि
आपका प्यारा पुत्र बड़ा ही ऐश्वर्य संयुक्त पुस्मितालोधानमें पधार गये हैं यह सुन माता स्नान मजन कर भरत को साथ लेकर हस्ती के उपर होदेमें बैठ के पुत्र दर्शन करनेको समवसरण में आई भरतने ऊंचा हाथ कर दादीजीको बतलाया कि वह रत्नसिंहासन पर आपके पुत्र ऋषभदेव विराजमान हैं माताने प्रथम तो स्नेह युक्त बहुत उपालंभ दिया. बाद वीतराग की मुद्रा देख आत्मभावना व क्षपकणि और शुक्ल ध्यान ध्याती हुई माता को कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शात्पन्न हुआ, असंख्यात काल से भरतक्षेत्र के लिये जो मुक्ति के दाजे बन्ध थे उसको खोलने को अर्थात् नाशमान शरीर को हस्ती पर छोड सबसे प्रथम आप ही मोक्ष में जा विराजमान हुइ मानो ऋषभदेव भगवान् अपनी माता को मोक्ष भेजने के लिये ही यहां पधारे थे. तत्पश्चात् चौसठ इन्द्रों और सुरासुर नर विद्यधरोंसे पूजित-भगवान् ऋषभदेवने चार प्रकार के देव व चार प्रकार की देवियों व मनुष्य मनुव्यणि और तीर्यच तीर्यचनि आदि विशाल परिषदा में अपना दिव्य ज्ञानद्वारा उच्चस्तर से भवतारणि अतीव गांभीर्य मधुर और सर्व भाव प्रकाश करने वाली जो नर अमर पशु पक्षी आदि सबकी समझ में आजावे वैसी धर्मदेशना दी जिसमें स्याद्वाद, नय निक्षेप द्रव्य-गुगापर्याय कारणकार्य निश्चय व्यवहार जीवादि नौतत्व षट्द्रव्य लोकालोक स्वर्ग मृत्यु पाताल का स्वरूप, व सुकृताकमका सुकृतफल दुःकृतकर्मका दुः-कृतफल दान शील तप भाव गृहस्थधर्म षट्कर्म बारहबत यतिधर्म पंचमहाव्रतादि विस्तार से फरमाया उस देशनाका असर श्रोताजनपर इस कदर हुवा कि वृषभसेन (पुंडरिक) आदि अनेक पुरुष और ब्रह्मीआदि अनेक स्त्रियाँ वे भगवान् के पास मुनि धर्मको स्वीकार किया और जो मुनिधर्म पालनमें असमर्थ थे उन्होने श्रावक (गृहस्थ) धर्म अंगीकार किया उस समय इन्द्रमहाराज बत्ररत्नों के स्थाल में वासक्षेप लाकर हाजर किया तब भगवान् नेमुनि अर्थिक श्रावक और श्राविका पर वासक्षेप डाल चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना करी जिसमें वृषभसेन को गणघरपद पर नियुक्त किया जिस गणधर ने भगवान् की देशना का सार रूप द्वादशाङ्ग सिद्धान्तों की रचना करी यथा-प्राचारांगसूत्र सूत्रकृतांगसूत्र स्थानायांगसूत्र समवायांगसूत्र विवाहपन्नतिसूत्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र उपा. सकदशांगसूत्र अन्तगढ़दशांगसूत्र अनुत्तरोववाइदशांगसूत्र प्रश्नव्याकरण दशांगसूत्र विपाकदशांगसूत्र और दृष्टिवादपूर्वागसूत्र एवं तत्पश्चात् इन्द्रमहाराज ने भगवान् की स्तुति वन्दन नमस्कार कर स्वर्ग को प्रस्थान किया भरवादि भी प्रभु की गुणगान स्तुति आदि कर विसर्जन हुवे-अन्यदा एक समय सम्राट भरतने सवाल किया कि हे विभो ! जैसे आप सर्वज्ञ तीर्थकर हैं वैसा भविष्य में कोई तीर्थकर होगा उत्तर में भगवान ने भविष्य में होने वाले तेवीस तीर्थंकरों के नाम वर्ण आयुष्य शरीरमानादि सब हाल अपने दिव्य कैवल्यज्ञान हारा फरमाया ( वह आगे बताया गया है ) इसकी स्मृति के लिये भरत ने अष्टापद पर्वत पर २४ तीर्थंकरों
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