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________________ [ ४२ ] किया है वैसे श्र श्रात्मिक धर्म प्रकाश कर संसार समुद्र में परिभ्रमन करते हुये जीवों का उद्धार कीजिये आपकी दीक्षा का समय श्रा पहुँचा है अर्थात् कुछ न्यून श्रठारा क्रोडाक्रोड सागरोपम से मोक्षमार्ग बन्ध हो रहा है उसको आप फिर से चालू करावें । भगवान् दीक्षाका अवसर जान एक वर्ष तक ( वर्षिदान ) श्रति उदार भावनासे दान दिया, भरत को विनीता का राज बहुबलीको तक्षशीला का राज और अंग वंग कुरु पुंड्र चेदि सुदन मागध अंध्र कलिंकभद्र पंचाल दशार्ण कौशल्यादि पुत्रों को प्रत्येक देशका राज देदिया. पुत्रोंका नाम था वह ही नाम देश का पड गया. भगवान् की दीक्षा के समय चौसठ इन्द्रोंने सपरिवार आकर के बड़ा भारी दीक्षा महोत्सव किया भगवान्ने ४००० पुरुषों के साथ चैत वद ८ के दिन सिद्धों को नमस्कार पूर्वक स्वयं दीक्षा धारण कर ली । पूर्वजन्ममें भगवान्ने अन्तराय * कर्मोपार्जन किया था वास्ते भगवान् को भिक्षा के लिये पर्यटन करने पर भी एक वर्ष तक भिक्षा न मिली कारण भगवान् के पहला कोई इस रीती से भिक्षा लेनेवाला था ही नहीं और उस समय के मनुष्य इस बात जानते भी नहीं थे कि भिक्षा क्या चीज है ? हाँ हस्ति श्रश्व रत्न माणक मोती और सालंकृत सुन्दर बालाओं की भेटें वह मनुष्य करते थे पर भगवान् को इनसे कोइ भी प्रयोजन नहीं था । उस एक वर्षके अंदर जो ४००० शिष्य थे वह क्षुधा पिडित हो जंगल में जाके फलफूल कन्द मूलादिका भोजन कर वही रहने लगे. कारण उच्च कुलीन मनुष्य संसार त्यागन कर फिर उसको स्वीकार नहीं करते हैं वह सब जंगलों में रह कर भगवान् ऋषभदेवका ध्यान करते थे । एक वर्ष के बाद भगवान् हस्तनापुर नगर में पधारे वहां बहुबली का पौत्र श्रेयांस कुमार के हाथ से वैशाख शुद ३ को इक्षुरसका पारणा किया देवताओंने रत्नादि पंच पदार्थ की वर्षा करी तबसे वह मनुष्य मुनियों को दान देने की रीति जानने लगे. यह हाल सुनके ४००० जंगलवासि मुनि फक्त कच्छ महाकच्छ वर्जके क्रमशः सव भगवान् के पास आके अपने संयम तप से श्रात्मकल्याण करने लग गये । भगवान् छद्मस्थपने बाहुबली कि तक्षशीला के बाहर पधारे बाहुबली को खबर होने पर विचार किया कि प्रभात को मैं बड़े डम्बर से भगवान् को बन्दन करने को जाएंगा पर भगवान् सुबह अन्यत्र विहार कर गये उस स्थान बाहुबली ने भगवान् के चरण पादुकाओं की स्थापना करी वह तीर्थ राजाविक्रम के समय तक मोजुद था बाद किसी समय म्लेच्छोंने नष्ट कर दिया. क्रमशः भगवान् १००० वर्ष छद्मस्थ रहे अनेक प्रकारके तपश्चर्यादि करते हुवे पूर्वोपार्जित कमोंका क्षय कर फागण वद ११ को पुरिमताल के उद्यानमें दिव्य कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन प्राप्त कर लिया आप सर्वज्ञ हो सकल लोकालोक के भावों को हस्तामलककी माफिक देखने लग गये. भगवान् को कैवल्यज्ञान हुआ उस समय सर्व इन्द्र मय देवीदेवताओं के कैवल्य महोत्सव करने को आये महोत्सव कर समवसरण की रचना करी यानि एक योजन भूमिमें रत्न, सुवर्ण, चांदी के तीन गढ बनाये उपर के मध्यभागमें स्फटिक रत्नमय सिंहासन बनाया. पूर्व दिशामें भगवान् विराजमान हुवे शेष तीन दिशाओं में इन्द्रके आदेश से व्यन्तर देवोने भगवान् के सदृश तीन प्रतिबिंब ( मूर्तियां) विराजमान कर दी चोतरफ के दरवाजे से आनेवाले सबको भगवान् का दर्शन होता था और सब लोक जानते थे कि भगवान् हमारे ही सन्मुख हैं योजन प्रमाण समवसरण में स्वच्छ जल सुगन्ध पुष्प और दशांगी धूप वगैरह सब देवों ने तीर्थकरों की भक्ति के लिये किया था । भगवान् के चार अतिशय जन्म से, एकादश ज्ञानोत्पन्नसे और १९ देवकृत एवं चौंतीस अतिश्य व अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनंत चरित्र अनंत लब्धि अशोकवृक्ष भामंडल रिफटक सिंहासन श्राकाशमें देववाणि Jain Education Intern किसी काल में ५०० बलदोंके मुंहपर छीड़ीयों बन्धा के अन्तराय कर्म बान्धा था । www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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