SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ल लानेका आदेश दिया तष युगल पाथिलानेका गया बाद इन्द्रने राजसमा राजसिंहासन राजाके योग्य बाभूषणों से भगवान को अलंकृत कर राजसिहासनपर विराजमान कर दिये । युगलमनुष्य जलपात्र लाये अगवान् को सालंकृत देख पैरोंपर जलाभिषेक कर दिये तब इन्द्रने युगलोंको विनीत कह कर स्वर्गपुरी सदृश १२ योजन लंबी ९ योजन चौडी विनीता नामकी नगरी बसाई उसके देखादेख अन्य नगर प्राम वसना प्रारंभ हुआ. भगवान् का इक्ष्वाकुवंश था। जिसको कोटवाल पदपर नियुक्त किया उनका उप्रकुल जिनको बडा माना उनका भोगकुल जिनको मंत्रिपदपर मुकर्रर किया उनका राजनकुल शेष जनताका क्षत्रियकुल स्थापन किया जबसे कुल व वंशोंकी स्थापना हुई शेष कुल वंश इनोके अन्दरसे कारण पा पाके प्रगट हुवे हैं। भगवान् ने युगल मनुष्यों का प्रतिपालन करने में व नीतिधर्म का प्रचार करने में कितनाही काल निर्गमन किया उसके दरम्यान भगवान के भरत बाहुबलादि १०० पुत्र और ब्राझी सुन्दरी दो पुत्रियाँ हुई थी भरत बाहुबलादि को पुरुषों के ७२ कला और ब्राह्मी सुन्दरी को स्त्रियों की ६४ कला व अठारह प्रकार की लिपि षतलाई जिनसे संसार व्यवहार का सब कार्य प्रचलित हुआ अर्थात् आज संसार भरमें जो कलायें व लिपियाँ चल रही हैं वह सब भगवान ऋषभदेव की चलाई हुई कलाओं के अन्तर्गत हैं न कि कोई नवीन कला हैं । हाँ कभी किसी कला लिपिका लोप होना और फिर कभी सामग्री पाके प्रगट होना तो काल के प्रभाव से होता ही आया है । ___भगवान का चलाया हुआ नीति धर्म-संसारका भाचार व्यवहार कला कौशल्यादि संपूर्ण श्रार्यव्रत में फैल गया मनुष्य असी मसी कसी आदि कर्म से सुखपूर्वक जीवन चलाने लगे पर प्रात्मकल्याण के लिये लौकिकधर्म के साथ लोकोत्तर धर्म की भी परमावश्यक्ता होने लगी। भगवान् के श्रायुष्य के ८३ लक्षपूर्व इसी संसार सुधारने में निकल चुके तब लौकान्तिकदेवने आके अर्ज करी कि हे दीनोद्धारक ! आपने जैसे नीतिधर्म प्रचलित कर क्लेश पाते हुये युगल मनुष्यों का उद्धार ___ *पुरुषों की ७२ कला-लिखनेकीकला, पढ़नेकीकला, गणितकला, गीतकला, नृत्यकला, तालवजामा, पटहबजाना, मृदंगबजाना, वीणाबजाना, वंशपरीक्षा, भेरीपरीक्षा, गजशिक्षा, तुरंगशिक्षा, धातुर्वाद, दृष्टिवाद, मंत्रवाद, बलिपलितविनाका, रत्नपरीक्षा, नारीपरिक्षा, नरपरीक्षा, छंदबंधन, तर्कजल्पन, नीतिविचार, तत्वविचार, कवितशक्ति, जोतिषशास्त्रज्ञान, वैद्यक, पडभाषा, योगाभ्यास, रसायणविधि, अंजनविधि, अठारहप्रकारकीलिपि, स्वमलक्षण, इंद्रजालदर्शन, खेतीकरनी, बाणिज्यकरया, राजाकीसेवा, शकुनविचार वायुस्तंभन, अग्निस्तंभन, मेघवृष्टि, विलेपनविधि, मर्दनविधि, ऊर्ध्वगमन, घटबंधन, घटभ्रमन, पनच्छेदन,मर्मभेदन, फलाकर्षण, जलाकर्षण, कोकाचार, लोकरंजन, अफल वृक्षों को सफल करना, खगबंधन, छुरीबंधन, मुद्रा. विधि,लोहज्ञान, दांतसमारण, काजलक्षण, चित्रकरण, बाहुयुद्ध, मुष्टियुद्ध, दंडयुद्ध, दृष्टियुद्ध. खड्गयुद्ध, वागयुद्ध, गारुडविद्या; सर्पदमन, भूतमईन, योग-द्रव्यानुयोग, अक्षरानुयोग, व्याकरण, औषधानुयोग, वर्षज्ञान । भिब स्त्रियोंकी चौसठ कला -नृत्यकला, औचिस्यकला, चित्रकला, वादित्रकला, मंत्र, तंत्र, ज्ञान, विज्ञान, दंभ, कस्तंभ, गीतज्ञान, तालज्ञान, मेघवृष्टि, फलवृष्टि, आरामारोपण, भाकारगोपन, धर्मविचार, शकुन विचार, क्रियाकल्पन, संस्कृतजल्पन, प्रसादनीति, धर्मनीति, वर्णिकाबुधि, स्वर्णसिद्धि, तैलसुरभीकरण, लीलासंचरण, गजतुरंगपरीक्षा, स्त्रीपुरुषके बक्षण, कामक्रिया, अष्टादश लिपिपरिच्छेद, तत्कालवुद्धि, वस्तुशुद्धि, वैद्यकक्रिया, सुवर्णरत्नभेद, घटभ्रम, सारपरिश्चम, अंजनयोग, चूर्णयोग, हस्तलाधव, क्वनपाटव, भोज्यविधि, वाणिज्यविधि, काव्यशक्ति, व्याकरण, शालिखंडन, मुखमंडन, कथाकथन, समग्रंथम,वरवेष, सकलभाषा, विशेषज्ञ, अभिधानपरिज्ञान, आमरण पहनने, भृत्योपचार, गृह्याचार, शाड्यकरण, परनिरा. ग, धान्यरंधन, केशवंधन वीणावादीनाद, वितंडावाद, अंकविचार, लोकन्यवहार. अंत्याक्षरिका, इसके सिवाय मौनारू नौकारू मकार सुतार नाह दरजी छोपा आदि की कलाभों अर्थात् यों कहें तो दुनियों का सब व्यवहार ही भगवान् भादिनाथ ती चलाया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy