SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 704
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५ भगवान् महाकीर की परम्परा आर्य ब्रजस्वामि-आचार्यश्री बज्रस्वामि जैनसंसार में खूब प्रतिष्ठित हैं भाप अनेक लब्धियें विद्याओं और अतिशय चमत्कारों से जैन धर्म की बड़ी भारी उन्नति की थी आपके नाम की स्मृति रूप वज्री शाखा चली थी जिसके प्रतिशाखा रूप अनेक गच्छ हुए थे आपश्री का अनुकरणीय जीवन संक्षिप्त से यहाँ लिखा जाता है। उस समय मालवा नामक देश बड़ा ही उन्नत समृद्धिशाली और धन-धान्य पूर्ण था उसमें एक तुंबवन नामक ग्राम था वहां वैश्यकुल में सिंहगिरि नाम का बड़ा ही धनाढ्य श्रेष्ठि वसता था । उसके धनगिरि नाम का पुत्र था और उसी नगर में धनपाल नाम का सेठ था जिसके सुनंदा नाम की पुत्री थी जिसकी शादी धनगिरि के साथ कर दी थी । बाद धनगिरि का पिता सिहगिरि ने आचार्यश्री दिन्न के पास दीक्षा ग्रहण करली थी । जब धनगिरि के सुनन्दा स्त्री गर्भवती थी उस समय धनगिरि ने भी वैराग्य की धुन में संसार को असार जानकर आचार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा लेली बाद सुनन्दा के पुत्र हुभा पर उसको बाल्यावस्था में ऐसा ज्ञान (जातिस्मरण) उत्पन्न हुआ कि उसकी भावना दीक्षा लेने की होगई किन्तु उस वाल्यावस्था में दीशा किस तरह लीजाय उसने अपनी दीक्षा का एक ऐसा उपाय सोचा कि रात्रि दिन रुदन करना प्रारंभ कर दिया जिससे उसकी माता सुनन्दा घबरा गई और बार-बार कहने लगी कि इस पुत्र के पिता ने दीक्षा लेली और यह पुत्र की आफत मेरे शिर पर छोड़ गये सुनन्दा अपनी सखियों को कहा करती थी कि यदि इस लड़का का पिता कभी यहाँ आ जाय तो मैं इस पुत्र को उनको सोंप वर सुखी बन जाऊँ इत्यादि ! भाग्यवसात् आर्यधनगिरि अपने गुरु के साथ विहार करते हुए उसी तुंबधन ग्राम में आ गये। गुरु महाराज ने निमित्त ज्ञान से जानकर धनगिरि को कहा कि है मुनि ! आज तुमको जो सचित अचित एवं मिश्र कुच्छ भी पदार्थ मिले वह ले आना। मुनि । समित के साथ धनगिरि भिक्षार्थ ग्राम में गया । फिरता फिरता सुनन्दा के घर पर आ निकला। सुनंदा पहिले से ही पुत्र के रुदन से केटाल गई थी ! मुनि धनगिरि को श्राया देख उसकी सखियों ने कहा कि हे सखी ! इस बालक का पिता मुनि आगया है। इस बालक को देकर तू सुखी बन जा जो तु पहला कहा करती थी। यह तेरे लिये सुअवसर है । बस सुनन्दा ने मुनि धनगिरि से कहा कि आप अपने पुत्र को ले जाइये मैं तो इसके रुदन से घबरा गई हूँ । मुनि ने कहा x ममापि भवनिस्तारः संभवी संयमादि । अत्रोपायं व्यमृक्षच्च रोदनं शैशवोचितम् ॥ ५१ ॥ x तत्र गोचरचर्यायां विशन्धनगिरिमुनिः । गुरुणा दिदिशे पक्षिशब्दज्ञाननिमित्ततः ॥ १३ ॥ + अद्य यद्रव्यमानोषि सचित्ताचित्तमिश्रकम् । ग्राह्यमेव त्वया सर्व तद्विचारं विना मुने ॥ ५७ ॥ तथेति प्रतिपदानस्तदार्यसमितान्वितः । सुनन्दासदनं पूर्वमेवागच्छदतुच्छधीः ॥ ५८ ॥ तदर्भलाभ श्रवणादुपायातः सखी जनः । सुनन्द प्राह देहि त्वं पुत्रं धनगिरेरिति ॥ ५९ ॥ सापि निवेदिता बाडं पुत्रं संगृह्य वक्षसा । नत्वा जगाद पुत्रेण रुदता खेदितास्मिते ॥ ६ ॥ गृहागैनं ततः स्वस्य पार्वे स्थापय चेत्सुखी। भवत्यसौ प्रमोदो मे भवत्त्वेतावतापि यत् ॥ ६ ॥ स्फुटं धनगिरिः प्राह ग्रहीये नन्दनं निजम् । परं स्त्रियो वचः पंगुवन्न याति पदात्पदम् ॥ ६२ ॥ क्रियन्तां साक्षिणस्तत्र विवादहतिहेतवे । अद्यप्रभति पुत्रार्थे न जलप्यं किमपि त्वया ॥ ६३ ॥ आचार्य बज्रसूरी की दीक्षा] ४८३ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy