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________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नीति कमजोर थी। सम्राट् चन्द्रगुप्त और विन्दुसार की नीति के आधार पर सम्राट अशोक ने अपनी नीति बनाई थी। दीवानी और फौजदारी की अदालतें भी उसी प्रकार चलती थीं । दण्ड विधान भी उतना ही करड़ा था ! जो कि भविष्य में अत्याचारियों के अत्याचार को रोकने में समर्थ कहा जा सकता। ___सम्राट अशोक ने अपने तमाम कर्मचारियों, अफसरों भौर जिले के मजिस्ट्रेटों का एक प्रधान कर्तव्य यह ठहराया था, कि वे अपने दौरों में कभी २ भिन्न २ स्थानों पर सभाएं करके जनता को धर्म नीति और चरित्र की शिक्षा दें। उन्हें हमेशा इस बात के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये कि जिससे जनता के अपराधों की संख्या न बढ़ । एक नीति विशारदों का दल भी उसने इस लिए नियुक्त किया था कि वह विशेष रूप से जीवों की रक्षा के लिए कानून बनावे और गुरुजनों के सम्मान और पूजन के लिए जो ब्यवस्था राज्य की ओर से की गई है उसका पालन यत्न-पूर्वक जनता से करवावे । इस दल के अफसरों को यह श्राज्ञा दी थी कि सभी लोगों और सभी सम्प्रदायों पर यहां तक कि राज परिवार पर भी वह दृष्ठि रक्खे । इससे मालूम होता है कि अशोक ने अपराधों की संख्या घटाने के लिए कितना अधिक प्रयत्न किया था । और इसमें भी सन्देह नहीं कि वह अपने प्रयत्नों में सफलीभूत भी हुआ । अशोक के शासन में अप. राधों की संख्या बहुत घट गई थी। ____उसकी शासन नीति की सफलता का एक सुदृढ़ प्रमाण यह भी है कि उसके इकतालीस वर्ष के विस्तीण काल में साम्राज्य के अन्दर कहीं भी बलवा या विद्रोह नहीं हुआ । इतने बड़े विशाल राज्य का इतने दीर्घ काल तक बिना किसी विद्रोह के रहना इस बात को प्रमाणित करता है कि उसकी शासन नीति बहुत ही उत्तम थी । और उसके शासन में प्रजा बहुत सुखी और समृद्ध थी। आयुर्वेदीय विभाग-चन्द्रगुप्त के समय के औषधालय-विभाग की प्रशंसा हम पहले कर पाए हैं। पर सम्राट अशोक ने इस विभाग में उससे मी अधिक उदारता दिखलाई । सम्राट् चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य के ही अन्दर औषधालयों का आयोजन किया था। पर अशोक ने न केवल अपने साम्राज्य में ही प्रत्युत दक्षिण भारत और यूनानी एशिया के प्रान्तों में भी औषधालय खुलवाये ये। सारे संसार के इतिहास में शायद् यही पहला सम्राट् था जिसने इतनी उदारता का परिचय दिया। पथिकों के विभाग का प्रबन्ध–सम्राट अशोक के समय में स्थान २ पर सड़कों पर व्यवस्थित प्रबन्ध था। सड़कों पर बड़े २ पीपल के वृक्ष, आमों की बाड़िया, और कई प्रकार के ऐसे विशाल वृक्ष लगाये जाते थे जिनकी सघन छाया सड़कों पर पड़ती रहे । जिसके कारण पथिकों को मार्ग में कष्ट न हो। प्रति माइल पर कुए भी खुदवाये जाते थे। धर्मशालाएँ और सराएँ भी स्थान २ पर बनवाई जाती थीं। ललित कलाओं की उन्नति-प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. विन्सेण्ट स्मिथ ने अशोक के समय की ललित कलाओं का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि "अशोक के समय में भारत की ललित कलाओं ने उन्नति की चरम सीमा देखी थी । गजकीय इन्जिनियर और स्थपित पत्थर, ईट और लकड़ी के अत्यन्त विशाल और महत्तायुक्त निर्माण करते थे । इनमें भिन्न भिन्न और उचित अवसरों पर पानी के आने और जाने के लिए द्वार बने हुए रहते थे । वे कठिन से कठिन चट्टानों को बहुत ही सुंदर, सीधे और बड़े २ स्तम्भ बनाते एवं Jain Edua temational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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