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आचार्य कक्कर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १९२
सुसज्जित कमरे खोद देते थे । आलेख्यवस्तु विद्या का एक अंग समझा जाता था। तमाम महत्वपूर्ण इमारतों लेख्य और चित्र बड़ी कारीगरी से बनाए जाते थे।"
वास्तव में सम्राट् अशोक संसार के उन सम्राटों में से एक थे । जिन्होंने बड़े २ विशाल भवनों का निर्माण करवाया । गुप्त साम्राज्य के द्वितीय चंद्रगुप्त के समय में जब प्रसिद्ध चीनी यात्रि फाहियान आया था तब सम्राट् अशोक का विशाल राजप्रासाद मौजूद था । उसे देख कर चीनी यात्री दङ्ग रह गया । उसने अपनी यात्रा के वर्णन में लिखा है कि, "यह राजभवन इतना विशाल था और उसके अन्दर मीनाकारी और पत्थर का ऐसा आश्चर्यजनक काम देखा था कि उसे देख कर कोई भी मनुष्य उसको मनुष्य निर्मित नहीं कह सकता । वास्तव में ये प्रासाद देवनिर्मित मालूम होते हैं । राजप्रासाद की ही तरह अशोक ने बहुत से विशाल बौद्ध मन्दिर और बिहार भी बनाए थे। ये मन्दिर भी उस समय की वास्तु विद्या की उच्चता को प्रकट करते हैं ! अशोक के समय के बहुत से ऐसे पाषाण के स्तम्भ मिले हैं, जिनकी ऊँचाई लगभग पचास-फीट और वज़न करीब पचास टन हैं। उनकी पालिश इतनी सुन्दर है कि अब तक नहीं मिटी और आधुनिक इन्जिनियर लोग भी यह नहीं बतला सकते कि वह पालिश किस प्रकार की जाती प्रकार सारनाथ के अशोक के सिंहाकृति वाले सिरों को जिन्होंने देखा है, वे उस समय की उत्तमता का अनुमान कर सकते हैं ।
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अब हम उस मुख्य विषय की ओर झुकते हैं जो सम्राट् अशोक के जीवन का प्रधान विषय रहा था । हम पहले ही लिख आए हैं कि सम्राट् अशोक की प्रधान रुचि धर्मप्रचार की ओर ही थी । सिंहासनारूढ़ होने के पूर्व वे किस धर्म के अनुयायी थे । यह विषय भी विवादास्पद है । कुछ लोगों का अनुमान है कि सम्राट् अशोक सिंहासन पर बैठने के पूर्व जैनधर्माधुयायी थे। इसका प्रमाण देते हुए वे कहते हैं कि, यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार जैनी थे, और पुत्र का पिता और पितामह के स्वीकृत किये हुए धर्म का अनुयायी होना अधिक स्वाभाविक है । यदि उसका मत बद लता भी है तो पूर्ण अध्ययन के पश्चात् । अतएव सम्राट् अशोक का प्रारम्भ में जैनी होना ही अधिक उपयुक्त मालूम होता है X | कुछ लोग उन्हें वेदमता लम्बी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं । वे कहते हैं कि पहिले उसकी पाकशाला में सहस्त्रों जीव मारे जाते थे । बौद्धधर्म ग्रहण करने पर भी दो मोर और एक हिरण उसके लिये मारा जाता था । जो कुछ भी हो पर इस बात के सत्य होने में सन्देह नहीं ही सकता कि सम्राट् अशोक अपने पूर्वकाल में बुद्धानुयायी नहीं थे । इसका एक प्रमाण यह भी हो सकता है कि उस समय तक बौद्धधर्म भारतवर्ष में भले प्रकार प्रतिष्ठित भी न हो सका था । जब जैनधर्म प्राचीन समय से चला आ रहा है और खूब प्रतिष्ठा पा चुका था यद्यपि बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारकों ने लोगों के हृदय में वेदधर्म के विरुद्ध बहुत से भाव फैला दिये थे तथापि जनता के हृदय में अभी तक बौद्ध जैसे नवीन धर्मो की जड़ मजबूती से नहीं जमने पाई थी वास्तव में सम्राट् अशोक ने बुद्धधर्मानुयायी हुए पश्चात् ही बौद्धधर्म की अधिक उन्नति हुई । ज्योंही उन्होंने बौद्धधर्म स्वीकार किया त्योंही तन, मन, धन से उन्होंने इस धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही
समय में
+ देखो -- जैनधर्म का प्राचीन इतिहास ३० ६० हो० मामनगर
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थी । इसी कारीगरी की
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