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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
कहा जाता है कि जिस समय अशोक ने कलिंक पर चढ़ाई की थी उस समय कलिंग निवासी क्या राजा और क्या प्रजा सब के सब जैन धर्मोपासक थे। इसके लिये प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। कारण वेदान्ती लोगों ने तो कलिंगवासियों को "वेदविनाशक" कहा है तथा ब्राह्मणों ने तो यहाँ तक भी लिख दिया था किः ~~
“गत्वैतान् कामतो देशात् कलिंगाश्च पतित् द्विजा" अतः वेदान्तियों ने तो कलिंग में जैन रहने के कारण उस देश को ही अनार्य भूमि कह कर ब्राह्मणों को कलिंग में जाने की सख्त मनाही कर दी थी। इतना ही क्यों पर कलिंग में जाने वाले ब्राह्मणों को पतित कह दिया है । दूसरे अशोक के युद्ध के पूर्व वहाँ बौद्धधर्म का नाम निशान तक भी नहीं था। अतः अशोक के युद्ध के पूर्व कलिंग देश के निवासी सब के सब जैनधर्मावलम्बी थे।
अशोक की सेना के साथ कलिंग के वीरों ने खूब युद्ध किया जहाँ तक अपनी चली वहाँ तक सामना किया पर आखिर अशोक की सेना के सामने कलिंग की सेना ठहर नहीं सकी । इस युद्ध में अशोक की विजय तो हो गई पर लड़ाई में इतने लोगों का संहार हुआ कि जिसको देख अशोक के दिल में युद्ध के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न हो गये और उसने मन ही मन यह प्रतिज्ञा भी करली कि अब मैं ऐसा युद्ध कभी नहीं करूंगा। यहां तक अशोक जैन ही था एवं जैन संस्कारों से ही उसे युद्ध से घृणा आई थी।
___ एक तरफ तो अशोक को उस घोर हिंसा प्रति घृणा हो रही थी तब दूसरी ओर बौद्ध भिक्षुओं का उसी समय आगमन हुआ। बस, उस समय थोड़े से उपदेश की ही जरूरत थी। बौद्ध भिक्षुओं ने ज्योंही अशोक को उपदेश दिया त्योंही उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। फिर भी अशोक के पिता पितामह से चले आये जैनधर्म का संस्कार उनके हृदय से सर्वथा दूर नहीं हुआ था। इस बात की साबूती स्वयं अशोक की धर्म लिपियें दे रही हैं । जिन लिपियों को सम्राट अशोक की बतलाई जारही हैं उनमें भी कहीं २ जैनत्व की झलक आती है जैसे तक्षशिला की आज्ञा के मंगलाचरण में भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। खैर, इसके विषय तो हम आगे चल कर लिखेंगे पर इतना तो निर्विवाद सिद्ध है कि अशोक का घराना शुरू से जैनधर्मोपासक था और जन तक अशोक ने बौद्धधर्म स्वीकार नहीं किया था तब तक स्वयं अशोक भी जैन ही था।
कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने अपना शेष जीवन धर्म करनी में एवं धर्म प्रचार में ही व्यतीत किया था । जनता के हित के लिये उसने कुँवाँ, तालाब, सड़कें, मुसाफिरखाने तथा साधु सन्यासियों के लिये मठ संघाराम वगैरह अनेक पुण्य कार्य किया था। सम्राट अशोक समय समय पर अपनी आज्ञायेंपत्थर की बड़ी बड़ी चट्टानों पर खुदवा कर जनता के दिल में सदाचार एवं धार्मिक संस्कारों को खूब दृढ़ करता था । अशोक यों तो बौद्धधर्मी कहलाता था पर किसी धर्म के खिलाफ उसने न तो कभी एक शब्द भी उच्चारण किया था और न उनकी खुदाई हुई धर्म आज्ञायें में एक अक्षर भी दीखता है यही कारण हैं कि अशोक के दीर्घकाल के शासन में किसी प्रकार का धर्म युद्ध हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता है।
सम्राट अशोक का शासन विभाग--हम पहले लिख आये हैं कि समाट् अशोक का जीवन प्राय: धर्म-प्रचार में ही अधिक व्यतीत हुआ । पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उनके समय की शासन
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