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आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ११२
थे वो साधु के रूप में दिखाई दिया अतः उन त्याग के अवतार को राजा प्रजा की ओर से कोटीश धन्यवाद दिया गया कि जिस स्थूलभद्र ने १२ वर्ष वैश्या के वहाँ रह कर भोग विलास किया उस वैश्या को तथा राजा के देने पर मंत्रीपद को ठुकरा कर यकायक मुनिव्रत स्वीकार कर लिया यह कोई साधारण बात नहीं है पर धन्य है इस त्यागी वैरागी स्थूलभद्र को कि जिस संसार में हस्ती की भाँति खुचा हुआ था जिसका त्याग करने में क्षणमात्र भी नहीं लगी।
___ स्थूलिभद्र वहाँ से चल कर आचार्य सँभूतिविजय के पास आया और आचार्यश्री के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा स्वीकार कर ली तत्पश्चात् सूरिजी का विनय भक्ति कर एकादशाङ्ग का अभ्यास कर तप संयम की आराधन करने में लग गया।
____एक समय का जिक्र है कि स्थूलभद्रादि चार मुनि श्राचार्यश्री के पास आकर + अर्ज की कि हे प्रभो ! हम लोग अभिग्रह पूर्वक एकल प्रतिमा को स्वीकार कर चतुर्मास करना चाहते हैं । एक ने कहा कि मैं सिंह की गुफा पर जाकर चतुर्मास करूंगा तब दूसरे ने कहा मैं सर्प की बांबी पर---तीसरा ने कहा मैं श्मशान एवं कूप के तट पर और स्थूलभद्र ने कहा मैं कोश्या वैश्या की चित्रशाला में चतुर्मास करूंगा ? सूरिजी ने अपने ज्ञान द्वारा लाभालाभ का कारण जान कर चारों मुनियों को उनकी इच्छानुसार चतुर्मास करने की आज्ञा दे दी और वे चारों मुनि अपने निर्णयानुसार यथा स्थान पर जाकर चतुर्मास कर भी दिया। तीनों मुनियों ने तो घोर परिश्रम को सहन करते हुए चतुर्मास बिताने लगे पर स्थूलभद्र तो पूर्व १२ वर्ष की परिचित वैश्या कि जिसके साथ हावभाव एवं भोग विलास किया था उनकी चित्रशाला में चतुर्मास किया था और विविध प्रकार के षट्रसयुक्त आहार पानी लेकर चतुर्मास बिताने लगे। वैश्या ने हावभाव करने में + स्थूलभद्रोऽपि सम्भूतिविजयाचार्य सन्निधौ । प्रव्रज्याँ पालयामास पार दृश्वा श्रुताम्बुधेः ॥१०९॥ वर्षा कालंऽन्यदायाते सम्भृतिविजयं गुरुम् । प्रणम्प मूर्नामुनय इत्यगृहन्नभिग्रहाम् ॥११०॥ अहं सिंह गुहाद्वारं कृतोत्सर्ग उपाषितः । अवस्थास्य चतुर्मासीमेकः प्रत्यशृणोदिदम् ॥१११॥ दग्विषाहि बिलद्वारे चतुर्मासी मुपोषितः । स्थास्यामि कायोत्सर्गेण द्वितियोऽभिग्रहीदिदम् ।।११२॥ उत्सगों कूपगण्डूकासने मास चतुष्टयम् । स्थास्याम्युपोषित इति तृतीयः प्रति पद्यतः ॥११३॥ योग्यान्मत्वा गुरुः साधून्यावत्ता न्वमन्यत । स्थूलभद्रः पुरोभूयनत्वैवतावद ब्रवीत् ॥११४॥ कोशाभिधाया वैश्याया ग्रहेया चित्रशातिकः । विचित्रकामशास्त्रोक्तकरणा लेखशालिनी ॥११५॥ तत्र कृत तपः कर्म विशेषः षड्साशनः स्थास्यामि चतुरोमासानितिमेऽअभिग्रहः प्रभो ॥११६॥ ज्ञात्वोपयोगायोग्यं तं गुरुस्तत्रान्वमन्यात । साधवश्चययुः सर्वे स्वस्वं स्थानं प्रतिश्रुतम् ॥११७॥ शान्त्यम् स्तीव्रतयोनिष्टान्दृष्ट्वा तागमुनिसतमान् । त्रयोऽमीभेजिरे शांतिसिंहसर्परिधट्टकाः ॥११८॥ स्थूलभद्रोऽपि सम्प्राप कोशा वैश्या निकेतनम् । अभ्युत्तस्यै तथा कोशाप्याहिताञ्जलिरग्रतः ॥११६।।
“परिशिष्ट पर्व स्वर्ग आठवां " आगे सिंह गुफावासी साधु वैश्या के वहां चतुर्मास करता है और वैश्या के हाव-भाव से चलित हो नेपाल देश में जाकर बड़े ही कष्ट से रत्नकम्बल लाता है जिसको वैश्या पैर लूछ कर गटर में डालती है।
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