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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
में भी आ गई बस । मंत्री राज सभा में जाकर विष भक्षण कर लिया बाद थोड़े समय से श्रीयक आया
और तलवार निकाल कर अपने पिता शकडाल का भरी सभा में शिर उड़ा दिया इस पर राजा ने पूछा श्रीयक यह तुम ने क्या किया ?x श्रीयक ने कहा कि ऐसा पिता जीवित रहने में क्या लाभ कि जो अपने स्वामी का अहित एवं मृत्यु चाहता हो ? इस वचन को सुनकर राजा श्रीयक पर बहुत संतुष्ट होकर कहा कि खैर यह तुम्हारे घराना का मंत्री पद है जिसको तुम पहन कर मन्त्री पदको शोभाइये। श्रीयक ने कहा मेरा बड़ा भाई स्थूलभद्र है जो आज १२ वर्षों से कैशा वैश्या के वहाँ रहता है यदि आप मन्त्री पद देना चाहें तो उनको बुला कर दीजिये क्योंकि वृद्ध भ्राता के होते हुए मुझे मन्त्री पद शोभा नहीं देता है इत्यादिः
राजा ने स्थूलभद्र को बुला कर मंत्री पद ग्रहण करने के लिये कहा उत्तर में स्थूलभद्र ने कहा कि मैं कुछ विचार कर उत्तर दूंगा राजा ने कहा । ठीक ! स्थूलभद्र नगर के बाहर अशोक बगीचा में जाकर विचार करने लगा कि जैसे मैं मंत्री बन कर सब राज की खटपट करने में उद्योग करू वैसे यदि आत्मकल्याण के लिये दीक्षा ले कर पुरुषार्थ करूं तो मेरे किये हुए पापों का नाश हो और मैं सद्गति का अधिकारी बन सकता हूँ इस मंत्री पद के कारण ही तो मेरे पिता अकाल में काल कवलित बन चुके हैं। अतः मैं अब राजसभा में जाकर धर्मलाभ ही दूँ । बस, वहीं पर पंचमुष्ठी लोच कर रत्नकम्बल का रजोहरण बना कर साधु के वेश से राजसभा में गया और वहाँ जाकर 'धर्मलाभ' दिया जिसको देख कर राजा और राजकर्मचारी आश्चर्य में मंत्र मुग्ध बन गये कारण जिस स्थूलभद्र को मंत्री देखने की प्रतिक्षा कर रहे
xभवता किमिदं वत्स विहितं कर्म दुष्करणम् । ससम्भ्रममिति प्रोक्तो नृपेण श्रयिकोऽवदत् ॥६४॥ यदैव स्वामिना ज्ञातो द्रोह्ययं निहतस्तदा । भत चित्तानुसारेण भृत्यानां हि प्रवर्तनम् ॥६५॥ भृत्यानां युज्यते दोषे स्वयं ज्ञाते विचारणा । स्वामिज्ञाते प्रतीकारो युज्यते न विचारणा ॥६६॥ कृतौ देहिकंनन्दस्ततः श्रीयकमब्रवीत । सर्व व्यापार सहिता मुद्रयं गृह्यतामिति ॥६७॥ अथ विज्ञपयामास प्रणम्य श्रीयको नृपम् । स्थूलभद्राभिधानोऽस्तिपितृतुल्यो ममाग्रजः ॥६८॥ पितृप्रसादानिधिकोशायास्तुनिकेतने । भोगानुपभुञानस्यतस्याब्दा द्वादशागमन् ॥६९॥ आहूयाथस्थूलभद्रस्तमर्थ भभुजोदितः । पर्यालोच्यामुमथं तु करिष्यामीत्यभाषत् ॥७॥ अद्यैवालोचयेत्युक्तः स्थूलभद्रोमहीभुजा। अशोकवनिकांगत्वा विममर्शेति चेतसा ॥७१॥ शयनं भोजनं स्नानमन्येऽपि सुखहेतवः । कालेऽपि नानु भूयन्ते रोरै खि नियोगिभिः ॥७२॥ नियोगिनां स्वान्यराष्ट्र चिन्ता व्यग्रे च चेतसि । प्रेयसीनां नावकाशः पूर्णकुम्भेऽम्भसामिव ॥७३॥ त्यक्त्वा सर्वमपि स्वार्थ राजार्थं कुर्वतामपि । उपद्रवन्ति पिशुना उद्घद्धानामिवद्विकाः ॥७४॥ यथा स्वदेह द्रविणव्यये नापि प्रयत्यते । राजार्थे तद्वदात्मा यत्यते किनधीमता ॥७५॥ विचिन्त्यैवं व्यधात्केशोत्पाटनं पञ्चमुष्टिभिः । रत्नकम्बल दशाभी रजोहरणमप्यथः ॥७६॥ ततश्च स महाभागो गत्वा सदसि पार्थिवं, आलोचितमिदं 'धर्मलाभः' स्तादित्य वोचत ॥७७॥ स्थुलभद्रोऽपिगत्वा श्रीसंभूतिविजयान्तिके, दीक्षां सामायिकोच्चारपूर्वकांप्रत्य पद्यत" ॥८२॥
"परिशिष्ट पर्व आठवाँ स्वर्ग"
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