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________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाह लाखण ने कहा पूज्यवर ! यह सोलहवर्ष का लड़का दीक्षा में क्या समझता है ? सूरिजी ने कहा लाखण ! जो होनहार होता है वह बालक ही होता है। कारण, एक तो धर्मसी बालब्रह्मचारी और दूसरे इस वय में दीक्षा लेगा तो ज्ञानाभ्यास भी विशेष करेगा। अतः तेरे सात पुत्र हैं जिसमें एक पुत्र जिनशासन के उद्धार के लिये भी दे तो इसमें कौन सी बात है ? लाखण ! इस संसार में जन्म लेकर अनेकों जीव यों ही मर गये हैं। उनको कोई याद भी नहीं करता है। तब तेरा पुत्र दीक्षा लेकर जगत का उद्धार करेगा इसका सब श्रेय तेरे को ही है। भला यह तो धर्मसी की भावना है पर दूसरे तेरे इतने पुत्रादि परिवार हैं किसी को जाकर पूछ कि कोई दीक्षा लेने को तैयार है ? अतः इस कार्य के लिये तुमको थोड़ा भी विलम्ब करना उचित नहीं है । और न मोह ममत्व के वश अन्तराय कर्म बन्ध ने की ही जरूरत है शाह लाखण समझ गया कि धर्मसी की इच्छा दीक्षा लेने की है और सूरिजी की इच्छा दीक्षा देने की है। यदि मैं इन्कार भी करूंगा तो मेरी कुछ चलने की नहीं है। अतः सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्थ करना ही अच्छा है। सूरिजी को वंदन कर लाखण अपने घर आया और धर्मसी को बहुत समझाया कि बेा! दीक्षा का पालना बहुत कठिन है और तेरे से दीक्षा पलनी भी मुश्किल है अतः तू घर में रह कर ही आत्मकल्याण कर । धर्मसी ने कहा कि हां, पिताजी दीक्षा का पालना जरूर कठिन है पर वह मेरे लिये नहीं किन्तु कायरों के लिये है। सूरवीर तो आज भी हजारों मुनि दीक्षा पालन करते है। आर मुझे दीक्षा दिला कर देखिये मैं दीक्षा पालन कर सकता हूँ या नहीं ? इत्यादि बहुत जवाब सवाल हुये आखिर शाह लास्नण ने निश्चय कर लिया कि धर्मसी दीक्षा अवश्य लेगा। अतः उसने जिनमन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सवादि दीक्षा का बड़े ही धामधूम से महोत्सव करवाया। दीक्षा लेनेवाला केवल एक धर्मसी ही नहीं था पर इनके साथ इनके कई साथियों ने भी दीक्षा लेने का निश्चय कर रक्खा था फिर भी सूरिजी का व्याख्यान इसी विषय पर होता था तो कई १८ नरनारियों ने दीक्षा की तैयारी करली । अहाहा ! पहिले जमाने के लोग कैसे लघु कर्मी थे कि वे एक को देख दूसरे भी धर्म करने को तैयार होजाते थे जैसे आज पापकर्म में एक की देखा देखी दूसरे करने को तैयार होजाते हैं वैसे ही पहिले जमाने में धर्म करनी के लिये होता था । यह सब पूर्व संचित कर्मों का उदय एवं क्षयोपसम का ही कारण है। ठीक शुभ मुहूर्त में सूरिजी महाराज ने उन मुमुक्षुओं को विधि विधान के साथ दीक्षा देदी जिसमें धर्मशी का नाम 'धर्ममूर्ति' रख दिया ! बस धर्ममूर्ति अपने ब्रह्मचर्य व्रत के लिये निर्भय बन गया और ज्ञानभ्यास करने में अहर्निश परिश्रम करने में लग गया। धर्ममूर्ति ने पूर्व जन्म में ज्ञानपद की एवं सरस्वती देवी की आराधना की थी और इस भव में भी देवी सरस्वती की आप पर पूर्ण कृपा थी कि बह बिना किसी अनुष्ठान के किये ही स्वयं देवी सरस्वती बरदाई होगई थी। फिरतो कहना ही क्या था मुनि धर्ममूर्ति वर्तमान साहित्य का धुरंधर पण्डित होगया। आप इतने विशाल विद्वान होने पर भी गुरुकुलवास में रहते थे और इसमें ही अपना गौरव एवं कर्तव्य समझते थे। पूर्व जमाने में गुरुकुल वास का बड़ा भारी महत्व था और वर्षों तक वे गुरुसेवा में रहते थे तव ही तो वे सर्व प्रकार की योग्यता हासिल कर गुरु पद को सुशोभित करते थे और प्राचार्य महा Jain Ed६४०nternational For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only [वीर धर्मसी की पुनीत दीक्षा .org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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