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आचार्य यत्तदेवरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६१८-६३५
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राज भी उन शिष्यों की ठीक परीक्षा करके ही अपना उत्तरदायित्व दिया करते थे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने मुनि धर्ममूर्ति को सर्व गुण सम्पन्न जान कर अपनी अन्तिमावस्था में सूरिमंत्र की आराधना करवादी और सूरि. पद से विभूषित बनाकर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया ।
प्राचार्य यक्षवदेसूरि महाप्रभावशाली आचार्य हुये हैं आप बाल ब्रह्मचारी और साहित्य के धुरंधर विद्वान थे । आप कई अलौकिक विद्याओं से विभूषित थे। अपने सोलह वर्ष की किशोर अवस्था में दीक्षा लेकर सोलह वर्ष गुरुकुलवास में रहे और सर्वगुण सम्पादित कर सूरिपद को सुशोभित किया : आप कई राजसभाओं में शास्त्रार्थ में भी विजय हुये थे।
भाचाययक्ष वसूरि एक समय विहार करते हुये भिन्नमाल नगर में पधारे आपका व्याख्यान हमेशा होता था और जैन जैनेतर गहरी तादाद में ज्ञानामृत का पान कर रहे थे अतः नगर में आपकी खूब महिमा फैल रही थी पर असहिष्णुता के कारण कई ब्राह्मण लोग उनको सहन नहीं कर सके वे कहने लगे कि जैना. चार्य कितने ही विद्वान हों पर वे हमारे तो शिष्य ही हैं अर्थात् हम ब्रह्मणों को बराबरी नहीं कर सकते हैं क्योंकि "ब्राह्मण च जगतगुरु" अर्थात् ब्राह्मण ही सब जगत के गुरु हैं । इस बात को कई श्रावकों द्वारा श्राचार्य श्री ने सुनी तो आपश्री ने फरमाया कि यदि ब्राह्मणो में गुरुत्व के गुण हों तो जगत को अपना गुरु मानने में क्या हर्ज है । समझदार केवल नामकी ही नहीं पर गुणों की पूजा करते हैं देखिये खास ब्राह्मणों के शास्त्र में ब्राह्मणों के लक्षण बतलाये हैं। सत्यंब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म वेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया ब्रह्म एतद्ब्राह्मण लक्षणम् ॥ ३८५ ॥ क्षमादम्मो दया दानं सत्यशील धुतिधुण । विद्या विज्ञान मास्तिक्य-मेतद् ब्राह्मण लक्षणम् ॥२०॥ मेथुनं ये न सेवंते ब्रह्मचारी दृढव्रताः । ते संसारसमुद्रस्य पारं गच्छन्ति सुव्रताः ॥ २९ ॥ अहिंसासन्यमस्तेयं ब्रह्मचार्यापरिग्रही । कामक्रोध निवृत्तस्तु ब्राह्मणः स युधिष्ठिर ॥ ३३ ॥ नैष्टिकं ब्रह्मचर्य तु ये चरन्ति सुनिश्चिताः । देवानामपि ते पूज्याः पवित्रं मङ्गलं तथा ॥ ४० ॥
___ यदि इन लक्षणों से विपरीत है उसको ब्राह्मण नहीं कहा जाता है देखिये सत्यं नास्ति तपोनास्ति नास्ति चेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया नास्ति एतच्चाण्डाल लक्षणम् ॥३८६।।
__यदि कोई शूद्र भी है और ब्राह्मण कर्म करता है तो वह ब्राह्मण ही है देखिये शुद्रोऽपि शोलसंपन्नो गुणवान्ब्रह्मणो भवेत् । ब्रह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रापत्यसमो भवेत् ॥ ३८३ ॥
सब जातियों में ब्राह्मण एवं चाण्डाल मिलते हैं सर्व जातिषु चाण्डालाः सर्व जातिधु ब्रह्मणाः । ब्रामणेष्वपि चाण्डालाश्चाण्डालेष्वपि ब्राह्मणाः ॥३८२ ।।
केवल नाममात्र का ही घमंड हो तो एक कीट का नाम भी इन्द्रगोप होता है ब्राह्मणा ब्रह्मचर्येण यथा शिल्पेन शिल्पिकः । अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपककीटवत् ॥
वेवल वेद पढ़ लेने से ही ब्राह्मण नहीं कहलाते हैं देखिये चतुर्वेदोऽपि यो भूत्वा चण्डं कर्म समाचरेत् । चण्डालः सतु विज्ञयो ने वेदास्तत्र करणम् ॥ ३८४ ॥
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भीनमल ब्राह्मण ]
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