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वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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ये स्त्रीजंघोरुसंस्पृष्टाः काम गृधाथ ये द्विजाः । ये चरितोधमा भ्रष्टाः तेऽपि शूद्रा युधिष्ठिर ॥ यस्तु रक्तषु दन्तेषु, वेद मुच्चरते द्विजः । अमेध्यं तस्य जिह्वाग्रे, सूतकं च दिने दिने हस्ततलप्रमाणां तु. यो भूमि कर्षति द्विजः । नश्यते तस्य ब्रह्मत्वं शूद्रत्वं त्वीभजायते ॥ अव्रतानामशीलानां जातिमात्रोपजीविनां । सहस्रमुचितानां तु, ब्रह्मत्वं नोपजायते ॥ हिंसकोऽनृतवादीच यः चौर्योपरतश्च तु । परदारोपसेवीच, सर्वे ते पतिता द्विजाः वास्तु विमा, ज्ञेयास्ते मातृविक्रियाः । तैर्हि देवाश्च वेदाथ, विक्रीता नात्र संशयः ॥ खरो द्वादशजन्मानि षष्टिजन्मानि शूकरः । श्वानः सप्ततिजन्मानि इत्येवं मनुरब्रवीत् ।। अब जरा जैनधर्म के सिद्धान्त को भी सुन लिजिये
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नव मुडिंग समणो, न ऊँकारेण बंभणी, न मुणीरण्ण वासेणं कुस चिरेण तावसो || समयाए समणो होइ, बंभचेरण बंभणो नाणेण मुखी होइ, तवेण होइ तावसो कम्मुणा भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दोहोइउ कम्मुणा || अर्थात् न केवल सिर मु ंडाने से साधु होता है न ॐकार का जाप करने से ब्राह्मण ही होता है न केवल वनवास करने से मुनि होता है और न कुशचिवर धारण करने से तपस्वी कहलाता है किन्तु राग द्वेष रहित साम्य भाव से साधु ब्रह्मचर्य पालन करने से ब्राह्मण, ज्ञान पढ़ने से मुनि और तप करने से तपस्वी महानुभावो ? जीव के न तो कोई वर्ण है और न कोई जाति है परन्तु वर्ण जाति कर्म के पीछे है। जैसे जो जीव शूद्र कर्म करते हैं वह शूद्र कहलाते हैं और ब्रह्मकर्म करने वाले ब्राह्मण कहलाते हैं । श्रतः जगत से पूजा पाने की अभिलाषा वालों को चाहिये कि वे पूज्यत्त्र के गुण पैदा करें फिर कहने की आवश्यकता ही नहीं रहती है जनता स्वयं पूजने लग जाती है ।
इत्यादि सूरिजी के उपदेश का सर उपस्थित जनता पर ही नहीं पर कई महानुभाव ब्राह्मणों पर भी काफी पड़ा और वे कह उठे कि महात्माजी का कहना सत्य है पूजा नाम की नहीं पर गुणों की ही होती है बस जयध्वनी के साथ सूरिजी का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
सूरिजी की नगर में खूब ही प्रशंसा होने लगी पर यह बात उन दुर्जन ब्राह्मणों को कब अच्छी लगने वाली थी। उन्होंने यह कह कर हुल्लड़ मचाया कि जैन ईश्वर को नहीं मानते हैं जैन वेदों को नहीं मानते हैं अतः जैन नास्तिक हैं और यह बात केवल हम ही नहीं कहते हैं पर पुराण इतिहास देखिये राजा भीमसेन ने जैनियों को अपने नगर से निकाल दिया था फिर चन्द्रसेन ने चन्द्रावती नगरी बसाकर जैनों को स्थान दिया पर आज के राजा हमारी सुनते ही नहीं यही कारण है कि जैनियों का जोर दिन व दिन बढ़ता रहा है इत्यादि ।
'वादे वादे जायते तत्वम्' ठीक है कई वक्त बाद विवाद तत्त्वबोध का कारण बन जाता है । आज भीनमाल का भी यही हाल होरहा है । ब्राह्मणों के वाद विवाद ने जनता में ठीक जागृति पैदा करदी है । सूरिजी भी अपनी सत्यता पर तुले हुए थे ब्राह्मणों में उस समय दो दल बनगये थे एक दल सत्य के पक्ष में था और उनको सूरिजी के निष्पक्ष वचन अच्छे लगते थे तब दूसरा दल चिरकाल से चली आई रूढ़ियों को आगे रख कर राजा प्रजा पर हुकूमत करना चाहता था ।
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