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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ दूसरे दिन सूरिजी का खूब जोरदार व्याख्यान हुआ जनता की संख्या हमेशों से बहुत बढ़कर थी राजा प्रजा और राज कर्मचारी भी उपस्थित थे । सूरिजी ने मंगलाचरण में ही ईश्वर को नमस्कार करते हुये फरमाया किः हे ईश्वर परमात्मा ? सच्चिदानन्द सर्वज्ञ अक्षय अरूपी सकल उपाधीमुक्त निरंजन निराकार स्वगुण भुक्ता श्रादि अनंतगुण संयुक्त । है विभो ! तुम्हारे नाम स्मरणमात्र से हमारे जैसे जीवों का कल्याण होता है अतः तुमको बार २ नमस्कार करता हूँ। तत्पश्चात् सूरिजी ने अपना व्याख्यान देना प्रारम्भ किया। श्रोता गण? आप जानते हो कि जब तक जीवों के कर्मरूपी उपाधि लगी रहती है तब तक वे नाना प्रकार की योनियों में अवतार धारण करते हैं और अवधि पूर्ण होने से मृत्यु को भी प्राप्त होते हैं और ऊँच नीच सुखी दु:खी होना यह पूर्व संचित कमों के फल हैं। जब जीव तप संयमादि सप्तकमों से सकलकों को नष्ट कर देता है तब वह आत्मा से परमात्मा बन जाता है उनको ही ईश्वर कहते हैं। कई लोग यह भी कह बैठते हैं कि जैन ईश्वर को नहीं मानते हैं पर यह लोगों की अनभिज्ञता ही है । कारण जैसे जैनों ने शुद्ध पवित्र सच्चिदानन्द को ईश्वर माना है वैसे किसी दूसरे मत ने नहीं माना है । भला इतना तो आप स्व सोच सकते हो कि जैन ईश्वर को नहीं मानते तो लाखों करोड़ों द्रव्य व्यय कर मन्दिर क्यों बनाते और अहिर्निश ईश्वर की भक्ति गुणा कोतन क्यों करते ? तथा जैन साधु राजऋद्धि एवं सुख सम्पत्ति का त्याग कर इस प्रकार के कठिन परिसहों को क्यों सहन करते इत्यादि प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध होता है कि जैनधर्म ईश्वर को अवश्य एवं यथार्थ मानता है । ____अब जरा ईश्वर मानने वाले नहीं पर ईश्वर की विडम्बना करने वालों के भी हाल सुन लीजिये । जो लोग ईश्वर को निरंजन एवं निराकार मानते हैं फिर भी उनको पुनः पुनः अवतार भी धारण करवाते हैं जैसे इस समय दश अवतार की कल्पना कर रक्खी है जिसका परिचय आप लोगों को करवाये देता हूँ। मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णाश्च बुद्धः कल्की च ते दश ॥ इन दस अवतारों का विस्तार से वर्णन करके समझाया और बतलाया कि जब ईश्वर सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान है तो उसको अवतार की क्या आवश्यकता जिसमें भी मनुष्य जैसी पवित्र योनिको छोड़ मच्छ कच्छ वराहा और नरसिंह जैसे अवतार धारण करना भलों ऐसी पशु योनियों में अवतार लेना क्या बुद्धि मता कही जा सकती है ? अब आप स्वयं सोच सकते हो कि ईश्वर की मान्यता जैनों की श्रेष्ठ है या ब्राह्मणों की ? अब रहा वेद का मानना-वेदो शुरू से तो जैनों के घर से ही प्रचलित हुए हैं भगवान आदीश्वर के मुखाविन्द से दिये उपकेश का साररूप भरत महाराज ने चार वेदों में संकलित कर जनता को उपदेश के लिए ब्राह्मणों को दिये थे और वे परमार्थी ब्राह्मण इन वेदों द्वारा स्वपर का कल्याण करते थे पर जब से ब्राह्मणों के मराज में स्वार्थ का कीड़ा पैदा हुआ तब से उन्होंने वेदों की असली श्रुतियों को बदल कर नकली वेद बना लिये । अतः जिन असली वेदों से जन कल्याण होता था वही नकली वेद निरपराधीमूक प्राणियों के कोमल कंठ पर छुरा चलाकर यज्ञ वेदियें रक्त रंजित कर रहे हैं। इसलिऐ जैन उन नकली वेदों को नहीं मानते हैं पर असली वेदों के तो जैन शुरू से ही उपासक थे और आज भी हैं इत्यादि । x १ संसारदर्शनवेद, २ संस्थापन परामर्श नवेद, ३ तत्त्वबोधवेद, ४ विद्याप्रबोधवेद ।( आवशकसूत्रवृति ) Join ka आचार्य यक्षदेवसरि का उपदेश] ६४३ For Private & Personal Use Only www.janelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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