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वि० सं० २१८-२३५ वष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सूरिजी के निडर एवं निष्पक्ष व्याख्यान का प्रभाव जनता पर ही क्यों पर उस सभा में बैठे हुए समभावी ब्राह्मणों पर भी काफी पड़ा था । फलस्वरूप कई पन्द्रह सौ ब्राह्मणों ने सूरिजी के चरण कमलों में जैनधर्म स्वीकार कर लिया अतः सूरिजी की विजय और जैन धर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई । प्राचार्य यज्ञ. देवसूरि कई श्री तक भीन्नमाल में विराजमान रहे बाद वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया ।
सूरिजी महाराज दिग्वजयी चक्रवर्ती की भाँति सत्यपुर शिवगढ़ वबोली श्रीनगर, जावलीपुर, मेथाणी, करकोली रोजाल, कोरंटपुर, चन्द्रावती, पद्मावती श्रादि स्थानों में भ्रमण करते अनेक भव्यों को धर्म उपदेश देते हुए लाट प्रांत में पधारे उस समय स्तम्भनपुर में बौद्धाचार्य जयकेतु आया हुआ था और वह अपने बौद्धधर्म का प्रचार के लिये भरसक प्रयत्न भी करता था। श्री संघ ने सुना कि मरुधर से आचार्य यज्ञदेव सूरि पधारे हैं। अतः संघ अप्रेश्वरों ने सूरिजी की सेवा में आकर स्तम्भनपुर पधारने की प्रार्थना की। सूरिजी महाराज ने विशेष लाभ का कारण जान स्तम्भनपुर की ओर विहार कर दिया बस फिर तो था ही क्या जनता का खूब उत्साह बढ़ गया उन्होंने स्वागत के लिए बड़ी २ तैयारियाँ की और सूरिजी महाराज का नगर प्रवेश का महोत्सव बड़े ही समारोह के साथ किया । बिचारे क्षणिकवादी बौद्धाचार्य की क्या ताकत थी कि वह न्याद्वाद सिद्धांत के सामने क्षण भर भी ठहर सके । एक दिन सूरिजी के कई साधु थडिले भूमि को जा रहे थे वहाँ बौद्ध भिक्षुओं की भेंट हुई कुछ मत मतान्तर के विषय भी वार्तालाप हुश्रा पर सूरिजी के साधुओं के सामने वे नतमस्तक हुये अतः उन्होंने सोचा कि यहाँ अपनी चलने की नहीं है एवं यहाँ से रफूचक्कर होना ही अच्छा है बस दूसरे दिन ही बौद्धाचार्य वहां से चल पड़े यह सूरिजी महाराज की दूसरी विजय थी। वह चतुर्मास सूरिजी का स्तम्भनपुर में हुआ जिससे कई प्रकार से धर्म की उन्नति हुई । बाद चतुर्मास के शाह धरण के निकाले हुये संघ के साथ आप श्री ने श्रीशत्रुजय तीर्थ की यात्रा की । तत्पश्चात् सौराष्ट्र देश में भ्रमन कर जैनधर्म की उन्नति एवं प्रचार को बढ़ाया तत्पश्चात् आपने वहां से कच्छभूमि को पावन बनाया : कच्छ के रहीड नडिया कोमनपुर कटीला भाद्रेश्वर माडव्यपुर धूरा हापाणादि प्राम नगरों में बिहार करते हुये कच्छ प्रदेश को जागृत किया और तदान्तर आपने सिन्ध धर। में पदार्पण किया । सिन्ध की जनता को प्रथम यक्षदेवसूरि की स्मृति हो रही थी । सिन्ध में आपके बहुत से साधु साध्वियां भी विहार करते थे। आपने हाडोली, मानपुर, शिवनगर, उच्चकोट वीरपुर, डमरेल, रहतनगर, गमपुर आदि नगरों में भ्रमण कर जनता को धर्मोपदेश से जागृत की कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई, कई मुमुक्षुओं को दीक्षा दी और कई पतिताचार वालों को जैन बनाये। उस समय सिन्ध प्रान्त में जैनधर्म की अच्छी जाहो जलाली थी । उपकेश गच्छाचार्यों का बार २ आना जाना रहा करता था और आचार्यदेव के आज्ञावृति साधुओं का तो सदेव वहाँ बिहार होता ही रहता था । इतना ही क्यों पर बहुत सं साधु तो सिन्ध धराके ही सुपुत्र थे और वह अपनी जन्मभूमि का आसानी से उद्वार भी किया करते थे। आचार्य यक्षदेवसूरि सिन्ध में बिहार करने के पश्चात् सीधे ही कुनाल-पंजाब में पधारे वहाँ भी आपके बहुत से साधु साध्वी विहार करते थे । जब सूरिजी का शुभागमन सुना तो पंजाब में एक नई चेतनता उत्पन्न हो गई।
सूरिजी ने कुनाल में घूमते हुये लोहाकोट में चतुर्मास किया और मंत्री नागसैनादि १५ नर नारियों को दीक्षा दी जिसमें नागसैन का नाम मुनि निधानकलस रक्खा । तत्पश्चात् तक्षिला आदि की स्पर्शना ६४४
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