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________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ करके आप श्री जी हस्तनापुर सिंहपुरादि तीर्थों की यात्रा करते हुये आप मथुरा में पधारे । वहां के श्रीसंघ ने सूरिजी का बड़ा ही शानदार नगर प्रवेश महोत्सव किया । उस समय मथुरा में बौद्धों का खूब ही जमघट रहता था और वे अपने धर्म का प्रचार भी करते थे । बौद्वाचार्य जयकेतु आपने भिक्षुओं के साथ वहां आया हुआ था फिर भी वहां जैनों का जोर भी कम नहीं था । उपकेश वशीय कइ लीगों ने व्यापारार्थ वहाँ श्राकर वास कर दिया था उनकी संख्या भी काफी थी। भला, एक नगर में दो धर्म के धुरंधर आचार्य एकत्र हों वहाँ धर्म विषय वाद हुये बिना कैसे रह सकता है । बस, मथुरा का भी यही हाल था । धर्म की चर्चा सर्वत्र गर्जना कर रही थी आचार्य यक्षदेवसूरि यों तो ३०० मुनियों के साथ मथुरा में पधारे थे पर आपके पास वीरभद्र और देवभद्र दो साधु बड़े ही प्रभावशाली एवं विद्वान थे। जैसे वे भागमादि साहित्य के धुरंधर थे वैसे ही वे विद्याओं एवं लब्धियों से भी विभूषित थे । जिसका परिचय पाठक पहले कर चुके हैं। बौद्धाचार्य को अपनी शक्ति का भान नहीं था। उसने स्थम्भनपुर का बदला लेने के लिये शास्त्राथ करने को आवाहन कर दिया जिसको आचार्य श्री ने बड़ी खुशी के साथ स्वीकार कर लिया । वहाँ के राजा बलभद्र की राम सभा में शास्त्रार्थ होना निश्चित हुआ । ठीक समय पर दोनों प्राचार्य अपने विद्वान् शिष्यों के साथ राज सभा में उपस्थित हुये । बोद्धों का सिद्धान्त क्षगिकवाद था तब जैनियों का सिद्धान्त था स्याद्वाद । बौद्ध सब पदार्थों को क्षणिक स्वभाव वाले बसलाते थे तब जैन प्रत्येक पदार्थ को द्रव्य गुण पर्याय संयुक्त प्रतिपादित करते थे : द्रव्य गुण नित्य अक्षय हैं तब पर्याय क्षणिक है। सूरिजी की अध्यक्षता में पडित वीरभद्र और देवभद्र ने आगम एवं युक्ति प्रमाण से अपनी मान्यता को दृढ़ता के साथ साबित कर बालाई और साथ में बौद्धों के क्षणक वाद का इस प्रकार खण्डन किया कि विचारे क्षणिक वादी बौद्ध उनके सामने ठहर ही नहीं सके । आखिर विजय माला जैनियों के ही कंठ में सुशोभित हुई और बौद्धों को नत मस्तक होना पड़ा अर्थात् जैनों का विजय डंका सर्वत्र बजने लगा। सूरिजी महाराज ने श्रीसंघ के अत्याग्रह विनती से मथुरा में चतुर्मास कर दिया जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना एवं उन्नति हुई कई मन्दिर एवं मूतियों की प्रतिष्टा करवाई । कई मुमुक्षुओं को जैन दीक्षा देकर उनका उद्धार किया तथा बाद चतुर्मास के सूरिजी विहार करते हुए आवंति प्रदेश में पधारे वहां सर्वत्र विहार कर जनता को धर्मोपदेश सुनाया वहां से मेदपाट को पावन बनाया। उस समय का चित्रकोट जैनों का एक केन्द्र कहलाता था जब सूरिजी मध्यगका पधारे थे तो चित्रकोट के भक्तजनों ने दर्शन के लिए तांता सा लगा दिया और अपने वहां पधारने की प्रार्थना की। सूरिजी महाराज चित्रकोट पधारे तो श्रीसंघ ने नगर प्रवेश का शानदार महोत्सव किया कारण उस समय मंत्री महामंत्री म्नापति वगैरह जितने राजकर्मचारी थे वह सब जैन एवं उपकेशवंशी ही थे फिर की ही किस बात की थी। सूरिजी का सारगर्भित व्याख्यान हमेशाँ होता था जैन जैनेतर खूब आनन्द लूट रहे थे श्रीसंघ की अति आग्रह से विनति होने से सूरिजा ने लाभालाभ का कारण जान वह चतुर्मास चित्रकोट में करना निश्चय कर लिया श्रष्टिवर्य मंत्री सादा ने बड़े ही महोत्सव पूर्वक श्रीभगवती सूत्र बचाया जिसमें मंत्रीश्वर ने ज्ञानपूजा वगरह में सवा लक्ष द्रव्य व्यय कर अनन्त पुन्योपार्जन किया इसी प्रकार अन्य लोगों ने भी लाभ हासिल किया सूरिजी के व्याख्यान का राज प्रजा पर खूब प्रभाव पड़ता था जैनाचार्यों के मथुरा में बोधाचार्य का पराजय ] For Private & Personal use Only ६५५ www.janelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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