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________________ [ ३ ] Date शहरों की गिनती का नगर था कहा है कि "नव नादड़ा बारह जाजीवालों जिस वीच वडा बनाड” इत्यादि पर वि० सं० १५१५ में राव जोधाजी ने जोधपुर श्राबाद किया तब से वनाड की आबादी टूटती गई फिर भी वि० सं० १९४० तक बनाड़ में ५० घर महाजनों के, एक मन्दिर, एक उपाश्रय विद्यमान था । वनार में वैद्य मेहता स्वनामधन्य श्रीमान् जीतमलजी साहब वहां रहते थे । आपके ३ पुत्र थे १ भूरमलजी, २ जोधराजजी, ३ मुलतानमलजी जिसमें भूरामलजी राज्य का काम करते थे जोधराजजी ठाकुरों की लेन देन या मारवाड़ में व्यापार किया करते थे और मुलतानमलजी दिशावर में नासिक जिले के गिरनार ताल्लुका में कोचर प्राम में दूकानदारी करते थे इन तीनों भ्राताओं के पृथक् २ काम होने पर भी वे सब शामिल थे और उन सब के आपस में भ्रातृस्नेह प्रेम भी प्रशंसनीय था। आगे भूरमलजी के पुत्र नवलमलजी, जोधराजजी के जीवणचंदजी और मूलतनमलजी के उदयचन्दजी थे । बि० सं० १९४० में मेहताजी नवलमलजी ब्यापार की सुविधा के लिये वनाड से चल कर वीसलपुर आ गये और वही पर अपना निवास स्थान बना लिया उस समय बीसलपुर में दो सौ घर महाजनों के एक अजितनाथ प्रभु का मन्दिर और कई धर्मस्थान थे । एक यतीजी भी उपाश्रय में रहते थे वे बड़े ही चमत्कारी थे । यद्यपि प्राचीन स्तुति में बीसलपुर में चार मन्दिर और ४७ जिन प्रतिमा का होना लिखा है। शायद जोधपुर बसने के पूर्व लपुर बड़ा नगर हो और वह चार जिन मन्दिरों में ४७ मूर्तियों का होना भी असंभव जैसी बात नहीं है क्योंकि उस समय वहाँ ५०० घर महाजनों के और बनजारों की बालदों द्वारा लाखों रुपयों का बाणिज्य होता था । ६'' जन्म” ऊपर लिखा जा चुका है कि मुताजी नवलमलजी बनाड़ का त्याग कर वीसलपुर में में रहने लगे और आपका सब व्यापार वगैरह भी अच्छी तरह से चलता था । मेहताजी का विवाह भी बीसलपुर में श्रामान् प्रयागदासजी चोरड़िया की सुशील कन्या रूपादेवी के साथ हुआ था अतः आपकी दम्पति जीवन बड़े ही सुख शांति में व्यतीत होता चला जा रहा था । श्रीमती रूपादेवी ने 'गयवर' महान् गज का स्वप्न सूचित वि० सं० १९३७ में विजयदशमी की रात्रि में एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। मुताजी के यह प्रथम पुत्र होने से आपके हर्ष का पार नहीं था अतः आपने अच्छा महोत्सव किया और पुत्र का नाम स्वप्नानुसार 'गयवरचंद' रख दिया । ज्योतिषविज्ञ विप्रदेव ने आपकी जन्मपत्रिका भी बनाई । गयवर की जन्मकुण्डली चन्द्रकुण्डली ११ चं० १० 'श० वृ० 2 २ *TO ३ के० सू० मं० बु० शु० ७ 'जन्म' वि० सं० १६३७ आश्विन शुक्ला १० वार बुध १६-५५ नक्षत्र धनिष्ठा ५३-४२ शूल५ योग ३२-४० गरकर्ण १६ - ५५ । श० १२ २ ११. १ चं० ३ के ४ ६ रा मं० शु० बु० ७ L सू० ५ 9 बालक्रीड़ा और तोतली भाषा सबको कर्णप्रिय लगती थीं । आपकी अनोखी चेष्टायें भविष्य में होनहार की श्रागाही दे रही थी । जब आप विद्याध्ययन के लिये पाठशाला में प्रविष्ट हुए तो अपने २ सहपाठियों से हमेशा नम्बर बढ़ता ही रहता था । यद्यपि श्रापके जमाने में न तो सरकारी बड़े २ स्कूल ही थे और न हिन्दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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