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________________ [४] की पढ़ाई ही थी उस समय के लोग अपने बाल बच्चों को महाजनी की पढ़ाई करवाने में ही अपने कर्तव्य की इति श्री समझते थे और उस साधारण पढ़ाई से ही वे लोग लाखों के व्यापार किया करते थे अतः मेहताजी ने पूरा एक रुपया पुत्र की पढ़ाई में व्यय किया जिसमें गयवर ने उस समय की पढ़ाई में धुरंधर होकर व्यापार में मुताजी के कन्धे का भार हलका कर दिया। ७-"विवाह" जब आपकी सतरह वर्ष की आयु हुई तो श्रीमान् भानुमलजी वागरेचा सेलावस वालों की सुशील कन्या राजकुंवारी के साथ सं० १९५४ मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को गयवरचंद का बढ़े ही समारोह के साथ विवाह कर दिया। मुताजी के वि० सं० १९४० में एक पुत्र का पुनः लाभ हुआ जिसका नाम गणेशमल रखा बाद सं० १९४६ में रूपादेवी का स्वर्गवास हो गया। जिससे मुताजी पर बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी। दोनों बच्चे छोटे थे अतः मुताजी ने दूसरा विवाह किया। जिससे क्रमशः हस्तीमल, बस्तीमल, मिश्रीमल और गजराज तथा एक यत्नवाई एवं पांच सन्तान हुई। जिसमें गनराज और यत्नवाई का तो स्वल्पायु में ही देहान्त हो गया शेष गयवरचंद, गणेशमल, हस्तीमल बसंतीमल और मिश्रीमल मुताजी के अन्त समय तक आपकी सेवा में विद्यमान थे। ८-'वैराग्य का कारण-ऊपर लिख पाये हैं कि गयवरचंद का विवाह १९५४ में हो गया था। आप जैसे द्रव्योपार्जन करने में हिम्मत रखते थे वैसे ही जवानी के नशे में ऐश आराम में खर्च भी किया करते थे पर मुताजी पुराने जमाने के होने से वरदास्त नहीं कर सकते थे.अतः गयवरचन्द को अलग कर दिया फिर भी उसकी अकल ठिकाने लाने के लिये मुत्ताजी ने अपने घर से थोड़ा भी सामान नहीं दिया इतना ही क्यों पर मुताजी ने सोचा कि कहीं जेवर पर हाथ न पड़ जाय अतः उन दम्पति के पास जो जेवर था वह भी सब उतार लिया मुवाजी का ध्येय तो यह था कि कुछ भी करने से इसकी व्यर्थ खर्च करने की आदत मिट जाय । खैर इतना करने पर भी गयवरचंद ने अपने पिताजी से यह सवाल नहीं किया कि आप मुझे घर से कुछ हिस्सा क्यों नहीं देते हो ? पुरुषार्थी के लिये दुनिया में क्या कमी है । वह सब कुछ कर सकता है। गयवरचंद को अलग रहते चार वर्ष हो गया। आपके खर्च वगैरह का वही ठाठ रहा जो पहिले था। वचित रकम से कुछ जेवर भी करवा लिया । श्राप दम्पति में इतना प्रेम था कि अधिक समय पृथक् रहना नहीं चाहते थे । आपके दो सन्तान भी हुई पर अल्पायु के कारण वे जीवित नहीं रह सकी । एक समय राजकुंवारी को लेने के लिये सेलावस से उनके भाई श्राये पर गयवरचंदजी भेजने को राजी नहीं हुये तथापि अत्याग्रह होने से भेज दिया। बाद आप अकेले ही रहे जब राजकुवारी को अपने पीहर गये पूरा एक महीना भी नहीं हुआ कि गयबरचंदजी के शरीर में एकदम बीमारी हो आई । इस हालत में सेलावस से लाने के लिये गाड़ी भेजी पर राजकुमारी ने सोचा कि बीमारी के बहाने से मुझे बुला रहे हैं मैं दो वर्ष से पितागृह आयी हूँ और अभी पूरा एक महीना भी नहीं हुआ है । अतः वे श्राने से इन्कार कर गई। इधर बीमारी दिनबदिन जोर पकड़ती गई। माता पिता भाई और मोसाल भी प्राम में ही था पर न जाने कैसा अशुभ कर्मों का उदय था कि किसी ने आकर थोड़ा भी आश्वासन नहीं दिया । रात बड़ी मुश्किल से व्यतीत होती थी एक दिन जब रात्रि में आप दर्द की भयंकरता को सहन न करते हुये ठुसक २ कर रुदन कर रहे थे तो पड़ोस में रहनेवाले प्रतापमलजी मुत्ता ने पाकर धीरज दिया और अनाथी मुनि की स्वाध्याय सुनायी। बस वह स्वाध्याय सुनते ही श्रापको संसार को असारता दिखने लगी और मुनि अनाथी की xश्री अनाथी मुनि की स्वाधाय । श्रेणिक रेवाडी चड्योरे पेखिया मुनि एकान्त । वर रूप क्रान्ते मोहियोरे रायपच्छे कहो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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