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[ २ ] लिखा जा रहा है। यदि मुझे आपनी का जीवनचरित्र विस्तृत रूप से लिखने की इजाजत मिल गई होती वो मैं बड़े ही उत्साह से आपश्री का जीवन सर्वांग सुन्दर बना कर जन साधारण की सेवा में रखता पर स्थानाभाव आपश्री के जीवन का संक्षिप्त से दिग्दर्शन करवाने के उद्देश्य से ही मैंने यह प्रयत्न किया है तथापि हजार मन माल के कोठे से मूठी भर का नमूना देख कर विद्वान कोठे के माल का अनुमान लगा सकते हैं इसी प्रकार हमारी लिखी संक्षिप्त जीवनी से ही पाठकों को आपश्री का ठीक परिचय हो ही मायगा। . ... . ......
१-"महाजन संघ" वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने मरुधर के उपकेशपुर में पदार्पण कर यहां के सूर्यवंशी राव उत्पलदेव मन्त्रीऊहड आदि लाखों वीर क्षत्रियों को एवं हजारों भैंसा बकराओं की वलि लेने वाली देवी चामुण्डा को प्रतिबोध कर "महाजन संघ" की स्थापना की थी इसके लिये अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं समझी जाती क्योंकि इसी प्रन्थ में इस विषय को बहुत कुछ लिखा गया है अतः पिष्ट पेषण करना उचित नहीं समझा जाता।
२-"उपकेशवंश" इस नाम की उत्पत्ति उपकेशपुर नगर की अपेक्षा से हुई है जब वीरा सं० ३७३ वर्षे उपकेशपुर में महावीरमूर्ति के प्रन्थिच्छेद का उपद्रव हुआ सब कितने ही लोग उपकेशपुर को छोड़ कर अन्यत्र जाकर वहां अपना निवास स्थान बना लिया तब से वे लोग उपकेशपुर से आने के कारण उपकेशी कहलाये। और समयान्तर में वे ही लोग उपकेशवंशी एवं उपकेशजाति कहलाये गये । वंश एवं जाति नामकरण का समय विक्रम की तीसरी चौथी शताब्दी के आस पास का होना अनुमान किया जा सकता है।
३-श्रेष्टिगोत्र-उपकेशपुर का शासनकर्ता सूर्यवंशी राव उत्पलदेव 'जब से जैन हुए तब से ही वे जैनधर्म का प्रचार करने में संलग्न हो गये और आपकी सन्तान परम्परा में भी जैनधर्म की उन्नति के लिये ऐसे ऐसे चोखे और अनोखे काम अर्थात् अनेक श्रेष्ठ कार्य हुये जिससे जनता उनको श्रेष्ठी कहने लग गयीं । कालान्तर आपका गोत्र ही श्रेष्ठिगोत्र बन गया। राव उत्पलदेव की सन्तान ने कई पुश्तों तक वो राज किया बाद उनके परिवार वाले कई ने सजा के मन्त्री महामन्त्री आदि राज्य का काम भी किया और राज्य का काम करने वाले को मरुधर में मेहताजी कहा करते हैं। अतः आपके सन्तानवाले मेहताजी के नाम से भी सम्मानित हुए।
-"वैचमेहता" वि० सं० १२०१ में गढ़शिवान के मेहताजी लालचन्दजी साहब अपने ससुराल वीसरीबार चित्तोर पधारे थे वहीं के राणाजी की माता के खिों में असह्य वेदना हो रही थी। लालचन्दजी को जैसे परमात्मा की पूजा करने का अटल नियम था वैसे ही कुलदेवी सत्यका का भी इष्ट था अतः राज्य कर्मचारियों ने मेहताजी से आंखों के लिये पूछा तो आपने अपने इष्ट के बल पर दवाई बतलाई जिससे तत्काल ही वेदना चोरों की तरह रफूचक्कर हो गई। इस हालत में वहां के राणाजी ने मेहताजी को बड़े ही सम्मान पूर्वक आठ प्रामों के साथ वैद्य पदवी इनायत की उसी दिन से वे श्रेष्ठिगोंत्र वाले वैद्य महता के नाम से मशहूर हुये, जिसके खानदान में हमारे चरित्रनायकजी का जन्म हुआ ।
५-"वीसलपर" ऊपर लिखा गया है कि गढ़शिवान में श्रेष्ठि गोत्रीय लोग बसते थे। पट्टावलियों में लिखा है कि विक्रम की पन्द्रहवी शताब्दी में ३५०० घर एक श्रेष्ठि गोत्र वैद्यमेहता शाखा के एक ही गढ़ शिवान में थे पर म्लेच्छों के उत्पाद से कई लोग गढ़शिवान को त्याग कर के अन्यत्र चले गये जिसमें मेहताजी जोरावरसिंहजी भी शामिल थे उन्होंने खेरवे जाकर वास किया बाद कई असों से वहीं के ठाकुरों के आपस में अनबन होने से मेहताजी खेरवा को मेड़ कर बनार में जाकर बस गये। उस समय,
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