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लेखक महोदय का संक्षिप्त परिचय
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स अपार संसार के अन्दर अनेकानेक जीव जन्म लेकर अपनी अवधि के पूर्ण होने से मुसा.
8 फिर की भांति चले जाते हैं, पर संसार में अमर नाम उन्हीं महानुभावों का रह जाता है PPO कि जो हजारों कठिनाइयों को सहन करते हुए भी जनता की भलाई करते रहते हैं
मारवाड़ में एक प्रामीण कहावत है कि दो कारणों से दुनियां में नाम रह सकता है "एक गीतड़े, दूसरे भीत" गीतड़ा का अर्थ है मौलिक प्रन्थ का निर्माण करना, और भीतका
का मतलब है मन्दिर मकान आदि बनवा जाना। इसमें प्रन्थों के निर्माण करने में हम यदि मरूपरकेसरी इतिहासप्रेमी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज को भी एक समझलें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। आप अपने जीवन में छोटी पड़ी सब मिला कर अभी तक २३१ पुस्तकें लिख कर प्रकाशित करवा चुके हैं। जैन मुनियों के क्रियाकांड, व्याख्यान, आए हुए जिज्ञासुओं के साथ वार्तालाप करना, प्रश्नों का उत्तर देना, या पत्र द्वारा पाए हुए प्रश्नों का उत्तर लिखना, प्रमु प्रतिष्ठा, शांति स्नात्र, आदि महोत्सव करवाना, तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालना, वादि प्रतिवादियों से शास्त्रार्थ करने में कटिबद्ध रहना, अन्य लोगों द्वारा जैनधर्म पर किये हुये आक्षेपों का लेख एवं ट्रेक्ट द्वारा प्रतिकार करना इत्यादि कार्य करते रहने से आपको कितना कम समय मिलता होगा यह बात पाठक स्वयं सोच सकते हैं पर आप इतने पुरुषार्थी एवं श्रमजीवी हैं कि अपने प्रायः एक मिनट के समय को भी व्यर्थ नहीं खोते हैं । पहिले तो जवानी थी पर अब वो आपकी साठ वर्ष से भी अधिक आयु है तथा शरीर भी आपका हमेशा नरम रहता है तथापि आपके पास बैठ कर नवजवान भी इतना काम नहीं कर सकता है। दूसरा जहाँ समय और साधनों की अनुकूलता हो वहाँ कार्य करना आसानी है पर मरुधर जैसे विद्या में पिछड़े हुए प्रदेश में कि जहां न तो पण्डितादि का साधन है और न द्रव्य की ही छूट है। हम देखते हैं कि अन्य साधुओं के पास में दो दो चार चार पंडित काम करते हैं केवल नाम ही साधुओं का रह जाता है पर यहां तो पुस्तक की सामग्री एकत्र करना सिलसिला जमाना प्रेस कापी करना एफ संशोधन करना आदि आदि सब काम प्रायः हाथों से ही करना पड़ता है । भाप श्री ने गद्य एवं पद्य दोनों प्रकार की पुस्तक लिखी हैं। शुरू से आपने श्राधे फार्म की पुस्तक से कार्य भारम्भ किया था क्रमशः बढ़ते २ करीब ४०० फार्म का एक प्रन्थ आपके हाथों से लिखा जा रहा है हम
पर लिख आये हैं कि आपश्री की लिखी हुई पुस्तकों के बाज तक छोटे बड़े २३१ नं० श्रागये हैं इसमें यदि बिलकुल छोटी और एक दूसरे के अनुकरण रूप ३१ पुस्तकों को छोड़ भी दी जायं तो भी २०० पुस्तक एक मनुष्य अपने अल्प समय में लिख दे तो यह कोई साधारण बात नहीं कही जा सकती है। यदि यह कहा जाय वो भी अत्युक्ति न होगी कि वर्तमान जैन धर्म में पांच हजार साधु साध्वीओं में ऐसा शायद ही कोई होगा जो अपने शरीर से पुरुषार्थ कर इस प्रकार प्रन्थों का निर्माण किया हो। इसमें भी विशिष्टवा यह है कि वर्तमानकालिक आडम्बर का तो आपके पास नाम निशान भी नहीं है। आपकी प्रकवि ही ऐसी है कि बिना किसी आडम्बर किये अपना काम किया करते हैं । यही कारण है कि दूसरे गेल्या पर खास जैनधर्म के कितने ही लोग भापका नाम तक भी नहीं जानते होंगे फिर भी जैनों में ऐसी मापोरी या पुस्तकालय शायद ही होगा कि जिसमें आपकी लिखी पुस्तक न मिलती हो।
आज मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ कि एक सेवाभावी महापुरुष का जीवनचरित्र मेरे हाथ से
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