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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ परम श्रावका सोनलदेवी के उत्साह का पार नहीं था उसने केवल राजघराने का ही उद्धार नहीं किया पर सब नगर का ही उद्धार कर दिया । लिखी पढ़ी महिलाएं क्या नहीं कर सकती हैं ? अब तो सोनलदेवी ज्ञान ध्यान एवं धर्म कार्य में इस प्रकार जुट गई कि उसका दिल संसार से विरक्त होने लग गया । साथ में आचार्यश्री का त्याग वैराग्य मय व्याख्यान फिर तो कहना ही क्या था? सोनलदेवी अपने पतिदेव को इस प्रकार समझाती थी कि संसार असार है विषय भोग किंपाक फल के समान कटुक फल के दाता हैं इससे ही जीव अनादि काल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है । इस समय सब सामग्री अनुकूल मिली है। यदि इसमें कल्शण साधन किया जाय तो जन्म मरण के दुःखों से छुटकारा मिल सकता है इत्यादि । वीरसेन अपनी पन्नी के भावों को जान गया और कहा कि क्या आपकी इच्छा विषय भोग एवं संसार त्याग देने की है ? देवी ने कहा हां! वीरसेन ने कहा यदि ऐसा ही है तो कीजिये तैयारी मैं भी आपके साथ हूँ। फिर तो कहना ही क्या था? दम्पति चलकर सूरिजी के पास आये और अपने मनोगत भाव प्रकाशित कर दिये। सूरिजी ने कहा राजकुबर आप बड़े ही भाग्यशाली हैं फिर सोनलदेवी का संयोग यह तो सोने में सुगन्ध है। पूर्व जमाने में बड़े २ चक्रवर्तियों ने जिनेन्द्र दीक्षा की शरण ली है। राज पाट भोग विलास जीव को अनंत वार मिला पर इससे कल्याण नहीं हुआ। कल्याण तो इसका त्याग करने में ही है। अतः श्राप शीघ्रता कीजिये कहा है कि 'समयंगोयमामपमाए' । क्योंकि गया हुआ समय फिर नहीं आता है इस बात का पता जब राजा वीरधवल और रानी गुनसेना को मिला तो पहिले तो वे दुःखी हुए पर जब सोनलदेवी ने अपनी सासू को इस प्रकार समझाया कि उनकी भावना दीक्षा लेने की हो गई । इस हालत में एक राजा ही पीछे क्यों रहे । उसने अपने लौतासा कुँवर देवसेन को राज देकर दीक्षा लेने का विवार कर लिया । जब नगर के लोगों ने इस प्रकार राजा रानी और कुँवर कुँवरानी का यकायक दीक्षा लेने का समाचार सुना तो मंत्र मुग्ध बन गये और कई नरनारी तो उनका अनुकरण करने को भी तैयार हो गये । इधर सूरिजी का उपदेश हमेशा त्याग वैराग्य पर होता ही था । बस, चतुर्मास समाप्त होने तक तो कई ४५ नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । राजा वीरधवल ने अपने पुत्र देवसेन को तख्तनशी न कर राजा बनादिया और उसने तथा श्रीसंघ ने दीक्षा का महोत्सव बड़ा ही शानदार किया। कारण एक तो खास राजा रानी और कुँवर कुँवरानी आदि ४५ नरनारियों की दीक्षा। दूसरे इस नगर में इस प्रकार दीक्षा का लेना पहले पहल ही था तीसरे सूरिजी महाराज का अतिशय प्रभाव ही इतना जबरदस्त था कि सब का उत्साह बढ़ रहा था । उधर उपके शपुर आदि बाहर प्रामों से भी बहुत से लोग आये हुए थे। जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य श्रादि धर्मकृत्य महोत्सव पूर्वक हो रहे थे। स्थिर लग्न एवं शुभ मुहूर्त में सूरीश्वरजी महाराज ने राजा वीरधवलादि मुमुक्षुओं को विधि विधान के साथ दीक्षा देकर उन सब का उद्धार किया । वीरसेन का नाम सोमकलस रक्खा गया था । मुनी सोमकलश बड़ा ही भाग्यशाली था। बुद्धि में तो वृहस्पति भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता था फिर भी सूरीजी महाराज की पूर्ण कृपा होने से स्वल्प समय में वर्तमान सकल साहित्य का एवं दशपूर्व तक का अध्ययन कर लिया था। यही कारण था कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अपनी अन्तिमावस्था में वीरपुर नगर के राजा देवसेनादि सकल श्रीसंघ के महोत्सव पूर्वक मुनी सोमकलस को सूरि मंत्र की आराधना करवा कर प्राचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया साथ में मुनि राजसुन्दर श्रादि ५ साधुओं को Jain Edue राजा राजकुँवरादि ४५ जनों की दीक्षा ] Private & Personal use Only www.५०३ary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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