________________
वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कर डालेंगी । इसके लिये सोनलदेवी का उदाहरण प्रमाणभूत है पर इसमें मुख्य कारण बालकों को धार्मिक शिक्षा अच्छी तरह से देना ही है। जैसे सोनलदेवी को दी गई थी
सोनलदेवी जब उपकेशपुर आई तो अपने गुरु महाराज से प्रार्थना की कि गुरुवयं आपके एवं आपके पूर्वजों के प्रयत्न से बहुत प्राम नगरों का सुधार हो गया परन्तु अभी ऐसे बहुत प्राम नगर पड़े हैं कि वहाँ आप जैसों के विहार की परमावश्यकता है । गुरु महाराज ने कहा सोनल तेरे सुसराल वाले तो सब वाममार्गी बतलाते हैं ? हाँ गुरुदेव ! जब ही तो मैं अर्ज कर रही हूँ कि आप उधर पधारे आपको बहुत लाभ होंगे । वहाँ के लोग बड़े ही सरल स्वभाव के एवं भद्रिक परिणामी हैं। गुरु महाराज ने फरमाया ठीक है सोनल ! अवसर देखा जायगा जब तेरा जाना होगा तब हम भी अवसर देखेंगे।
सोनेलदेवी कुछ अ6 तक उपकेशपुर में रही बाद अपनी सुसराल चली गई उसी समय आचार्य रत्नप्रभसूरि भ्रमण करते हुए वीरपुर नगर में पधार गये । वहाँ के संघ ने सूरिजी का सुन्दर स्वागत किया। इतना ही क्यों पर राजकन्या सोनल ने भी अपने सुसराल वालों को प्रेरणा करके सूरिजी का स्वागत कर वाया और सोनलदेवी हमेशा व्याख्यान सुनने के लिए भी कोशिश किया करती थी। सूरिजी का व्याख्यान बड़ा ही मधुर रोचक और प्रभावोत्पादक था। नगर भर में जहां देखो वहाँ सूरिजी एवं जैनधर्म की प्रशंसा हो रही थी । यही कारण था कि वहाँ के पाखण्डियों के आसन हिलने लगे। उन्होंने राजा एवं राज कुँवर तथा राज अन्तेवर में जा-जा कर बहुत कहना सुनना किया पर उनकी एक न चली। इस हालत में वे लोग जैनधर्म को नास्तिक धर्म बतला कर खूप पेट भर निन्दा करने लगे । आखिर राजा वीरधवल ने कहा कि मैं इस प्रकार एक त्यागी महात्मा की निन्दा सुनने को तैयार नहीं हूँ यदि आप अपनी सच्चाई बतलाना चाहते हो तो राजसभा में पण्डितों के सामने जैनाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करने को तैयार हो जाइये । उन्होंने राजा का कहना स्वीकार कर लिय । अतः राजा ने सूरिजी से भी कहा पर सूरिजी तो शास्त्रार्थ के लिए पहिले से ही तैयार थे। राजा ने एक दिन मुकर्रर कर दोनों पक्षवालों को आमंत्रण पूर्वक राजसभा में बुलाये और जिस समय दोनों का शास्त्रार्थ श्रारम्भ हुआ उस समय राजसभा श्रोताओं से खचाखच भर गई थी तथा अच्छे २ निष्पक्ष एवं मध्यस्थ पण्डित भी उपस्थित थे । एक तरफ राज अन्तेवर एवं महिला समाज के लिए इन्तजाम कर रक्खा था जिससे सोनलदेवी आदि राज अन्तेवर एवं नगर की महिलायें बैठ गई थीं।
___ वाममागियों के पास केवल एक ही शब्द था कि जैनधर्म नास्तिक धर्म है क्योंकि यह वेद एवं वेद कथित ईश्वर और ईश्वर कथित यज्ञ को नहीं मानते हैं ?
आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास एक पण्डित निधानमूर्ति नामक विद्वानमुनि थे उसने सूरिश्री की आज्ञा लेकर उन वादियों से पूछा कि आप नास्तिक आस्तिक का क्या अर्थ करते हैं ? इस विषय में खूब वादविवाद चला । पं० निधानमूर्ति युवकावस्था में होने पर भी उनके शब्द बड़े ही धैर्य गांभीर्य माधुर्य और प्रमाण एवं युक्ति मय निकलते थे कि जिसका प्रभाव सभा पर तो हुआ ही था पर उन वाममार्गियों पर भी इस कदर हुआ कि वे मिथ्या पंथ का त्याग कर सूरिजी के पास दीक्षा लेने को तैयार हो गये और सूरिजी ने उन लोगों को दीक्षा दे अपने शिष्य बना लिये । फिर राजा प्रजा का तो कहना ही क्या था वे सबके सब जैनधर्म में दीक्षित हो जैन श्रावक बन गये और साथ में सूरिजी से चतुर्मास की विनती बड़े ही आग्रह
से की और लाभालाभ का कारण जानकर सूरिजी ने चतुर्मास वहां ही कर दिया । Jain Ella International
For Private & Personal use [ राजसभा में पाखण्डियों का पराजय ary.org