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आचार्य यक्ष देवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५-५५७
का दिन अच्छा है। सासुजी ने कहा लाडीजी ! आइये अपने गुरु आये हैं इनसे गुरुमंत्र सुनकर कंठी बन्धवा लीजिये। सोनलदेवी ने सोचा यह क्या पाखंड है। इनके गले में सोने की जनेऊ पड़ी हुई है पैरों में खड़ाऊं पहिने हुए हैं मुँह में तंबोल-पान है और स्त्रियों को भी छूते हैं यह कैसे गुरु हैं ! विनय के साथ सासुजी से कहा आपका कहना ठीक है कि गुरु बिना ज्ञान नहीं, गुरु बिना कल्याण नहीं । श्रतः मनुष्यमात्र का कर्त्तव्य है कि गुरु अवश्य करना चाहिये पर गुरु ऐसा करना चाहिये कि वह अपने कल्याण के साथ दूसरे का कल्याण कर सके । यदि सारंभी सपरिग्रही भी गुरु कहलाते हों तो फिर अपने और गुरु में फरक ही क्या है ? सासुजी -लाड़ीजी ! आप ही बतलाइये फिर गुरु कैसे होते हैं ? लाडीजी ने कहा - सासुजी ! कनक कामिनी के त्यागी पंच महाव्रतधारी केवल संयम और शरीर के निर्वाह के लिये स्वल्प वस्त्र पात्र एवं शुद्ध सात्विक आहार पानी वह भी मधुकरी भिक्षा से अपना निर्वाह करते हों तथा उनके न मठ मकान होते हैं। न किसी पदार्थ का संचय एवं संग्रह रखते हैं परन्तु केवल जनकल्याण की भावना के लिये शीतोष्णकाल के लिये एक मास और चतुर्मास में चार मास के अलावा कहीं अधिक नहीं ठहरते हैं। सासुजी ! ऐसे निस्पृही मुनियों को गुरु कहा जाता है ।
पास में बैठे हुए बाबाजी बोल उठे कि माजी साहब आपके लाड़ीजी तो नास्तिक हैं । इनकी तो मंत्रों द्वारा शुद्धि करनी पड़ेगी। सोनलदेवी ने पूछा कि पूज्य सासुजी ! आपकी आज्ञा हो तो मैं बाबाजी से शुद्धि के बारे में कुछ पूछ ? सासुजी ने कहा नहीं लाड़ीजी ! यह तो अपने गुरु हैं। गुरु के सामने बोलना महान पाप है । गुरु कहें सो मंजूर कर लेना ही अपना धर्म है। सोनलदेवी ने सोचा कि यहाँ तो जेट की जेट ही कच्ची है । अन्धविश्वास शायद इसका ही नाम होगा । परन्तु उतावल करने से काम नहीं बनेगा । अतः धीरे-धीरे ही काम लेना चाहिये । लाड़ीजी ने कहा ठीक है सासुजी मैंने गुरु तो आठ वर्ष की अवस्था में ही कर लिया था अब दुबारा गुरु करने की आवश्यकता नहीं है । सासु ने कहा ठीक है लाड़ीजी ।
बाबाजी भी समझ गये कि यहाँ अपनी दाल गलने की नहीं है। अतः उठकर नौ दो ग्यारह हो गये ।
दिन भर तो सासूजी के लाड़ लड़ाने में व्यतीत कर दिया। शाम को जब प्रतिक्रमण का समय हुआ तो कौतूहल देखने को बहुत औरते आगई । उनको भी प्रतिक्रमण में शामिल बैठा ली। उठ बैठादि क्रिया करना तो उनके लिए कठिन था पर उन्होंने मजाक-मजाक में घंटा भर सब क्रिया की। सोनलदेवी कई-कई शब्दों के अर्थ भी समझाया करती थी जिसमें गृहस्थ धर्म के व्रत और अतिचारों की उनको जानकारी होने लगी । प्रतिक्रमण क्रिया समाप्त हो गई तो भी औरतें लाड़ीजी से दूर नहीं हुई । अतः वह देवगुरु और धर्म का थोड़ा-थोड़ा स्वरूप समझाने लगी। साथ में पाखंडियों के माने हुए देवगुरु धर्म के ऐसे दोष बतलाये कि जिससे उनको घृणा होने लग गई । केवल उन औरतों में ही नहीं परन्तु सोनलदेवी ने तो अपने पतिदेव पर भी अपने धर्म का इतना प्रभाव डाला कि मांस और मदिरा से उनको घृणा आने लगी । सोनलदेवी केवल दश ही दिन सुसराल में रही थी पर अपने धर्म की सुगन्ध सर्वत्र फैला दी ।
आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के क्षत्रियों की शुद्धिकर जैनधर्म में दीक्षित किये थे उस समय अन्य क्षत्रियों से बेटी व्यवहार खुला रखने का यही कारण था कि उनकी पुत्री को जैन क्षत्रिय अपने यहाँ लावेंगे तो उनका उद्धार करेंगे और जैन क्षत्रियों की पुत्री उनके घर जावेंगी तो उनके घर का भी उद्धार
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