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________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जात देना जरूरी था पर सोनलदेवी थी जैनधर्मोपासिका उसने साफ शब्दों में कह दिया कि मैं तो एक सर्वज्ञ एवं वीतराग को ही देव मानती हूँ और उनको ही अपना शिर मुकाती हूँ। अतः मेरी प्रतिज्ञा का निर्वाह करना आपके हाथों में है। वीरसेन के माता पिता आदि कुटुम्बी नववधु के बचन सुन कर विचार में पड़ गये कि यह क्या धर्म है कि शुभ मंगलीक के लिये देवी देवताओं की जात दी जाती है जिसके लिये लाडीजी आज ही इन्कार करती है तो भविष्य में इसका क्या नतीजा होगा ? साथ में यह पहले पहल मौका है। बहू को नाराज भी नहीं करनी चाहिये । अतः सासु ने आकर मधुर एवं प्रेम बचनों से सोनलदेवी से कहा वीनणी जी ! मेरे तो तू एक ही लाड़ली बहू है तेरे सिवाय मेरे राज में और क्या प्रिय वस्तु हो सकती है। मैं तेरे नियम प्रतिज्ञा एवं धर्म में दखल करना नहीं चाहती हूँ पर यह पब्लिक का काम है आज तो आप मेरे कहने से ही यहाँ के रिवाज के अनुसार देवी देवताओं की जात दे श्राओ। बाद जैसा तू कहेगी वैसा ही मैं करूँगी। सोनलदेवी बड़ी समझदार थी। उसने सोचा कि इस समय मेरी सासुजी इतना प्रेम दिखा रही हैं तो मेरा कर्तव्य है कि मैं इनके सामने विनय करूँ और मेरे इस विनय का भविष्य में इन पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा अर्थात् इनसे मुझे कई प्रकार से काम लेना है। दूसरे सम्यक्त्व में ६ आगार भी कहा हैं अतः सोनलदेवी अपनी सासुजी का कहना शिरोधार्य कर इच्छा न होने पर भी अपने पतिदेव के साथ जाकर देवी देवता की जात दे आई । सासु को बहू यों ही प्यारी लगती है जिसमें सोनलदेवी जैसी विनयशील बहू का तो कहना ही क्या था । फिर तो सासुजी का प्रेम इतना बढ़ गया कि वह दिन तो लाडकोड में निकल गया। शाम के समय सोनलदेवी स्थापनाजी रख कर प्रतिक्रमण करने लगी तो जैसे तमाशा देखने को जनता एकत्र होती हैं वैसे सासु वगैरह बहुत औरत एकत्र हो गई। एक घंटा भर उसकी प्रतिक्रमण क्रिया देखी तो वे सब आश्चर्य करने लगी कि इतने इतने वर्षों में हम कुछ धर्म क्रिया नहीं जानती तब वह बालका इस रंग राग के समय भी अपना षटकम कर रही है। जब सोनलदेवी की प्रतिक्रमण क्रिया समाप्त हुई तो सासु वगैरह सबने पूछा कि बहूजी आपने यह क्या किया है ? सोनल देवी ने शुरू से लेकर आखिर तक प्रतिक्रमण का भावार्थ कह सुनाया जिसको सुन कर सासुजी आदि ने बड़ी खुशी मनाई कि मेरे अहो भाग्य हैं कि मेरे घर में ऐसी लाड़ी आई है । सासुजी ने कहा क्यों लाड़ी जी! आप मुझे भी इस प्रकार की क्रिया करावेंगी ? सोनलदेवी ने कहा कि क्यों नहीं यह तो मेरा कर्तव्य है ही कि पूज्य माता पिता एवं सासु सुसरा की विनय व्यावच करना उनका हुक्म उठाना और धर्म कार्य में सहायता देना । सासजी आप सुबह जल्दी उठ जाइये कि मैं आपको प्रतिक्रमण करवा दूंगी इत्यादि । सासुजी ने कहा अच्छा लाडीजी मैं सुबह जल्दी आऊँगी । और तुम्हारे साथ मैं भी प्रतिक्रमण करूँगी। सुबह जल्दी उठकर सासु बहू ने प्रतिक्रमण किया तो सासु को इतना आनन्द आया कि जिसको वह कह भी नहीं सकी । यह बात राजअन्तेवर में सर्वत्र फैल गई। यहाँ तक कि राजगुरु के कानों तक पहुँच गई। उन्होंने सोचा कि जब उपकेशपुर राजा के साथ सम्बन्ध हुआ था तब से ही शंका थी कि उन नास्तिकों के यहाँ की राजकन्या आवेगी तो यहाँ कुछ न कुछ भ्रम फैला ही देंगी। वास्तव में यह बात सत्य हो गई। अतः इसका इलाज जल्दी करना अच्छा है। वरना रोग बढ़ने पर बात हाथ में नहीं रहेगी। अतः वे लोग चल कर राजअन्तेवर में आये और रानी को कहा लाओ लाड़ीजी को कि गुरुमंत्र सुना कर कंठी बन्धवादी जाय श्राज Jain Ed५००nternational For Private & Personal use only . [ सोनलदेवी और सा.सु.nary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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