________________
आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
१७ - ग्राचार्य यक्षदेव सूरि (तृतीय)
[ ओसवाल संवत् ५१५-५५७
आचार्यस्तु देव पदयुक् सूरिर्नृपस्य सुतः । विद्या ज्ञान कलाधरो न विजहौ धर्म स्वकीयं च यः ॥ दुष्कालेऽपि च वज्रसेन विदुषः सूरेः सुशिष्यान् सुधीः । जज्ञौ ये तु निवृत्ति विद्याधर पुङ् नागेन्द्र चान्द्रान्वयाः ॥ जाता: जैन समाज लोक विषये कर्त्तापकारस्य ये । भूरेः सूरियं कदापि न हि किं विस्मार्य कार्योऽस्ति वा ॥ किन्त्वेकं करवा बद्ध करता युक्त सदाभ्यर्थयन् ।
कल्याणं कुरुतां जनस्य भगवन् प्र ेम्णा कटाक्षं तव ॥
DINE
आचार्यश्री यज्ञदेवसूरीश्वरजी महान प्रभाविक आचार्य हुए हैं।
के महान प्रतापी राजा वीरधवल की विदुषी पट्टराज्ञी हुआ था और आपका शुभ नाम वीरसेन रक्खा था। और शरीर में रहे हुए शुभ लक्षण आपके भावी होनहार की शुभ सूचना कर रहे
थे | आपका पालन पोषण सब क्षत्रियोचित हो रहा था। आप वर्ण में क्षत्री थे पर विद्या में तो ब्राह्मण वर्ण के सदृश्य ही थे कि बालभात्र मुक्त होते ही आपके पिताश्री ने महोत्सवपूर्वक विद्यालय में प्रविष्ट किया पर आपकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि अपने सहपाठियों में सदैव अमेश्वर ही रहते थे । कहा भी है कि 'बुद्धि कर्मानुसारणी' जिन जीवों ने पूर्व जन्म में ज्ञान पद की एवं देवी सरस्वती की आराधना की हो उनके लिये इस प्रकार शीघ्र ज्ञान प्राप्त कर लेना कोई मुश्किल की बात नहीं है । राजकुँवर वीरसेन आठ वर्ष की पढ़ाई में पुरुष की ७२ कलाओं में एवं राजतंत्र चलाने में विज्ञ बन गया ।
Jain Education international
जब राज कुँवर वीरसेन सोलह वर्ष का हुआ तो उसकी शादी के लिये अनेक प्रस्ताव मय चित्रों के आये उसमें उपकेशपुर नगर के राव नरसिंह की सुशीला पुत्री सोनलदेवी के साथ वीरसेन का सम्बन्ध (सगाई) कर दी समयान्तर बड़े ही समारोह के साथ विवाह कर दिया । राजकन्या सोनलदेवी के माता पिता जैनधर्मोपासक थे अतः सोनलदेवी जैनधर्मापासिका हो यह तो एक स्वभाविक बात है। इतना ही क्यों पर सोनलदेवी को बचपन से ही धार्मिक ज्ञान की अच्छी शिक्षा दी गई थी कि अपना षट्कर्म एवं क्रिया विशेष में सदैव रत रहती थी। जैनमुनि एवं साध्वियों से सोनल ने जैनधर्म के दार्शनिक एवं तात्विक ज्ञान का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था जिसमें भी कर्म सिद्धान्त पर तो उसकी अटल श्रद्धा एवं विशेष रुचि थी ।
उपशपुर की राजकन्या सोनलदेवी ]
आपका जन्म वीरपुर नगर गुनसेना की पवित्र कुक्ष से आपके हाथ पैरों की रेखा
विवाह होने पर सोनलदेवी अपनी सुसराल जाती है और वहां उसकी कसौटी का समय उपस्थित होता है । वाममार्गियों ने एक ऐसा भी रिवाज कर रक्खा था कि कोई भी व्यक्ति परण के आवे तो नगर में या नगर के बाहर जितने देवी देव हों उन सब की जात दें । तदनुसार वीरसेन और सोनलदेवी को भी
For Private & Personal Use Only
४९९ www.jainelibrary.org