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________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तथा आर्यबज्रसूरि के साथ शत्रुजय आया। पर वहां के यक्ष ने २१ दिन तक खूब उपद्रव किया । आखिर उसको परास्त होकर वहां से भागना पड़ा। ____ बस, फिर तो था ही क्या । जाबड़शाह ने शत्रुजय पर्वत को दूध और शत्रुजी नदी के निर्मलनीर से धुलवाया और वहां का सब काम करवा कर तक्षशिला से लाई हुई भगवान आदीश्वर की मूर्ति की प्रतिष्ठा आचार्य बन सूरि के कर कमलों से करवाई। आचार्य श्री ने द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जान कर कबड़देव और चक्रेश्वरीदेवी को वहां के अधिष्ठाता के रूप में स्थापन किया । आचार्य बज्रसूरि और जाबड़ शाह के प्रभावशाली प्रयत्न से चतुर्विध श्रीसंघ को फिर से पुनीत तीर्थ की यात्रा करने का शौभाग्य मिला है । जैन संसार में जाबड़शाह खूब प्रसिद्ध पुरुष है और इनके द्वारा फराया हुआ तीर्थधिराज श्रीशत्रुजय का उद्वार भी महत्वपूर्ण कार्य है जिसको जैन समाज कभी भूल नहीं सकता है आज पर्यन्त चतुर्विध श्रीसंघ तीर्थराज की यात्रा सेवा भक्ति कर अपना कल्याण कर रहा है जिसका सर्व श्रेय स्वानामधन्य प्राग्वट वंश भूषण श्रीमान् जावड़शाह को ही है । यद्यपि इनके बाद श्रीमाल एवं ओसवालों ने भी इस पुनीत तीर्थ का उद्धार करवाया है पर पंचमारा में उस विकट परिस्थिति में उद्धार करवाने वाले गुरु वज्रस्वामि और जावड़शाह विशेष धन्यवाद के पात्र कहा जा सकते हैं। श्री शत्रुजय का संघ---आचार्य जज्जगसूरि विहार करते हुए पालिकापुरी में पधारे श्री संघ ने आपका अच्छा स्वागत किया सूरिजी का प्रभावोत्पादक व्याख्यान हमेशा होता था एक समय आपने श्रीरात्रुञ्जय तीर्थ का महात्म्य बतलाते हुए तीर्थ यात्रा से शासन की प्रभावना और भविष्य में कल्याणकारी फल का विस्तार से बर्णन किया जिससे जनता की रुची तीर्थयात्रा की हो आई कारण कई अर्सा से श्री शत्रुजय की यात्रा बन्द थी पर श्रार्य बनसूरि और जावड़शाह के प्रयत्न से पुनः तीर्थ का उद्धार हुआ था अतः सबका दिल पुनीत तीर्थ की यात्रा करने का हो जाना एक स्वाभाविक ही था उसी सभा में बैठा हुआ अपार सम्पत्ति का मालिक प्राग्वट वंशीय शाह जोधड़ा ने सूरिजी एवं श्रीसंघ से अर्ज की कि श्रीसंघ मुझे आदेश दिरावे मैं श्रीशत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाल् ? सूरिजी ने कहा जोघड़ा तु बड़ा ही भाग्यशाली है श्री संघ ने भी अनुमोदन के साथ आदेश दे दिया । बस फिर तो कहना ही क्या था शाह जोघड़ा ने बड़ी भारी तैयारियां करनी शुरू कर दी । सर्वत्र आमंत्रण पत्रिकाएँ भेज दी । इस संघ में एक लक्ष से भी अधिक भावुक और तीन हजार साधु साध्वियां थे जिसमें अधिक साधु साध्यिां उपकेश एवं कारंटगच्छ के ही थे उस समय आचार्य रत्नप्रभसूरि चन्द्रावती नगरी में विराजते थे अतः संघपति जोपड़ा ने स्वयं जाकर विनती की अतः सूरिजी ने जोपड़ा की प्रार्थना स्वीकार कर संघ में शामिल होने की मंजूरी फरमादी जब संघ पालिकपुरी से प्रस्थान कर चन्द्रावती आया तो सूरिजी अपने शिष्यों के साथ शामिल हो गये फिर तो था ही क्या सबका उत्साह द्विगुणित हो गया आचार्य जज्जगसूरि ने भी सूरिजी का यथायोग्य विनय किया ! शत्रुजय की यात्रा खुल्ली होने के बाद यह पहला ही संघ का अतः जनता एक दम उलट पड़ी थी जब संघ शत्रुजय पहुँचा उस समय शत्रुजय पर छोटा बड़ा तेरह संघ आये थे पर सब से बड़ा संघ मरूधर का ही था। सब लोगों ने परमात्मा युगाधीश्वर की यात्रा कर पूर्व संचित पाप का प्रक्षालन कर डाला आठ दिन अष्टान्हिका एवं ध्वज महोत्सवादि और स्वामि वात्सल्यादि किये अनेक महानुभावों ने संघ को पेहरामणि वगैरह दी शाह जोघड़ ने इस संघ में एक करोड़ द्रव्य शुभ क्षेत्र में लगाया Jain E०४९८international For Private & Personal Use Only [ भगवान् महावीर की परम्परा intry.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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