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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ लिप्तपुर और मधुमती लूटकर जाबड़शाह को भी पकड़ लिया और जाते समय वे जाबड़ को भी अनार्य देश म साथ ले गये । जाबड़ एक पक्का मुत्सद्दी था अपने चातुर्य एवं कुशलता से मलेच्छों को प्रसन्न कर वहाँ भी अपना करना शुरू कर दिया । जिससे पुष्कल द्रव्योपार्जन कर लिया और वहाँ आने वाले भारतीयों को अनेक प्रकार की सहायता पहुँचाने लगा। । इतना ही क्यों पर जाबड़ ने तो अपने सेवा पूजा दर्शन के लिए वहाँ जैनमंदिर और उपाश्रय भी बनवा लियाथा । उस समय जनमुनियों का बिहार भी उस तरफ हुआ करता थाइधर बिहार करते हुये मुनियों का एक मण्डल अनार्य देश में आया । जावड़शाह ने उनका स्वागत किया। मुनियों ने जावड़ की धर्म भावना देख वहां स्थिरता करदी और धर्मोपदेश देने लगे जिससे अनार्यो पर भी जैन धर्म का अच्छा प्रभाव हुआ। एक समय प्रसंगोपात श्री सिद्धाचल का वर्णन करते हुए कहा कि कदर्पि यक्षद्वारा तीर्थ की बड़ी भारी आशातना हो रही है । श्रीसंघ कई अर्सा से यात्रा से वंचित है । हे श्र ेष्टिवर्ण्य ! यह पुन्य कार्य तुम्हारे हाथ से होने वाला है । तुम इस कार्य के लिये उद्यम करो। इस का में द्रव्य की अपेक्षा राजसत्ता की अधिक जरूरत है यहां की साता के अलावा तक्षिला के राजा जगन्मल के पास प्रभु आदीश्वर की मूर्ति है। उसे प्राप्त कर शत्रु जय पर स्थापित कर अनंत पुन्योपार्जन करो इत्यादि । वड़ का दिल देश एवं मातृभूमि तथा तीर्थ की ओर आकर्षित हुआ । अतः वहां से चल कर तक्षिला आया । बहुमूल्य भेंट देकर राजा को प्रसन्न किया । राजा ने पूजा कहो सेठजी आपको किस बात की जरूरत है जावड़ ने मूर्ति मांगी और राजा ने जावड़ को मूर्ति देदी इतना ही क्यों पर राजा ने तो जावड़ को सौराष्ट्र तक इंतजाम कर मधुमति नगरी तक क्षेमकुशल से पहुँचा दिया । जब मनुष्य के पुन्योदय होता है तब चारों ओर से लाभ ही लाभ मिलता है । जावड़ ने जो माल जहाजों द्वारा विदेश में भेजा था उसके लिए इतने वर्ष हो गये कुछ भी समाचार नहीं मिले थे पर इधर तो जावड़ मधुमति आता है और उधर से वे जहाजों भी मधुमति श्र पहुँचती है । अहाहा धर्म एक कैसा मित्र एवं कैसा सहायक होता है कि जिसका फल अवश्य मिलता है भले थोड़ा दिन की अन्तराय आ भी जाय पर उस अवस्था में मनुष्य अपने धर्म पर पावन्दी रखता है तो शीघ्र ही आपत्ति से मुक्त हो सुखों का अनुभव करने लग जाता है एक समय जावड़ म्लेच्छों द्वारा पकड़ा गया था तब आज जावड़ शाह अपार सम्पति का धनी बनकर शत्रुंजय का उद्धार की भावना वाला बन गया है । उस समय आर्यसूरि विहार करते हुए मधुमति आये । जाबड़शाह सूरिजी को वन्दन करने को गया उस समय लक्षदेवों का अधिपति एक देव भी, सूरिजी को वन्दन करने के लिये आया था। सूरिजी ने धर्मलाभ देकर जावड़ के कार्य में मदद कर तीर्थोद्धार करने का उपदेश दिया देवता ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्ण्य करली | बड़ ने कहा प्रभो ! इस महान तीर्थं का उद्धार करना कोई साधारण सी बात नहीं है । इसमें पुष्कल द्रव्य की आवश्यकता है। सूरिजी ने कहा तुम्हारे जो जहाज आये हैं उनमें रेती सी दीखती है वास्तव में वह रेती नहीं पर तेजमतुरी है जिससे लोहे का सुवर्ण बन जाता है । बस, फिर तो कहना ही क्या था ? एक तरफ तो देव की सहायता और दूसरी तरफ द्रव्य की प्रचु रता । जाबड़ का उत्साह बढ़ गया । जाबड़ सब साधन सामग्री एवं तक्षिला से लाई हुई मूर्ति लेकर श्रीसंघ + उस समय तक्षिला ५०० जैनमन्दिरों से सुशोभित जैनियों का एक केन्द्र था । बड़शाह का उद्धार | Jain Education Internatio For Private & Personal Use Only ४९७ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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