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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष।
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उपाध्याय, क्षमाकलसा आदि सप्त साधुओं को बाचनाचार्य मुनि पद्मविशाल आदि ७ साधुओं को पण्डित पद आदि पदवियां प्रदान कर उनके उत्साह में वृद्धि की उस समय एक तो साधुओं की संख्या अधिक थी दूसरे साधुओं को पृथक २ प्रान्तों में विहार करना पड़ता था अतः उन साधुओं की सार संभाल एवं आलोचना देने वगैरह के लिये पदवीधरों की आवश्यकता भी थी।
प्राचार्य यक्षदेवसूरि महान् प्रभावशाली एवं जैनधर्म के प्रचारक एक वीर प्राचार्य थे । आपने अपने पूर्वजों की भाँति प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जैनधर्म का काफी प्रचार किया। कई मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म की शिक्षा-दीक्षा दी एवं कई मुमुक्षु प्रों को जैनधर्म की मुनि दीक्षा दी। कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठायें करवाई। कई नगरों से बड़े २ संघ निकलवा कर तीर्थों की यात्रा की कई स्थानों में राजसभात्रों में बोध एवं वेदान्तियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय पताका फहराई । कई दुष्कालों में देशवासी भाइयों की रक्षा का उपदेश देकर उनको सहायता पहुँचाई कई स्थानों में असंख्य मूक प्राणियों की बली रूप यज्ञप्रथा को उन्मूलन कर उन जीवों को अभयदान दिलवाया और कई जनोपयोगी प्रन्थों का निर्माण कर जैन धर्म को चिरस्थायी बनाया इत्यादि जैन समाज पर ही नहीं पर अखिल भारत पर आपका महान उपकार हुआ है ।
आर्य बत्रसूरि के जीवन में लिखा गया है कि आपके समय बारह वर्षीय दुकाल के कारण जैनश्रमणों के पठन पाठन स्वाध्याय ध्यान एवं आगम वाचना बन्द सी हो गई थी और साधुओं की दशा भी छिन्न भिन्न हो गई थी। और बाद थोड़ा ही अर्सा में आर्या बन्न सेन के समय दूसरा जन संहार बारह काली दुकाल पड़ गया जब दुकाल के अन्त में पुनः सुकाल हुआ तो आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने साधु साध्वियों के अलावा आर्य बत्रस्वामी के साधु साविय को भी एकत्र कर उन श्रमण संघ की सर्व प्रकार की व्यवस्था कर पुनः संगठन किया था। इसका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों के में मिलता है। जिसका भागर्थ
तदन्वये यक्षदेवसूरिरासीद्धियाँ निधि । दशपूर्वधरोबस्वामी भुव्यभवद्यदा दुर्भिक्षे द्वादशाब्दीये, जनसंहारकारिण । वर्तमानेऽनाशकेन, स्वोऽगुबहुसाधवः ॥ ततो व्यतीते दुर्भिक्षेऽवशिष्टान् मिलितान् मुनीन् । अमेलयन्यक्षदेवाचार्या चन्द्रगणे तथा ॥ तदादि चन्द्रगच्छस्य, शिष्य प्रव्राजनाविधौ । श्राद्धाना वास निक्षेपे, चन्द्रगच्छः प्रकीर्त्यते ॥ गणः कोटिक नामापि, वज्रशाखाऽपि संमता। चान्द्रं कुलं च गच्छेऽस्मिन, साम्प्रतं कथ्यते ततः ॥ शतानि पंच साधूनां, पुनगच्छेऽपिमिलन्निह । शतानि सप्त साध्वीनां, तथोपाध्याय सप्तकम् ॥ दशद्वौवाचनाचार्या, रचत्वारो गुरवस्तथा । प्रवर्तकौ द्वावभूतां, तथैवोभे महत्तरे ॥ द्वादशस्युः प्रवर्तिन्यः, सुमीति द्वौ महसरौ । मिलितौ चन्द्रगच्छा तः सङ्खयेयं कथ्यते गणे ॥
उपके शगच्छ चरित्र "एवं अनुक्रमणे वीवीरात् ५८५ वर्ष श्री यक्षदेवसूरिविभूव महाप्रभावकत, द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष नध्ये वनस्वामि शिष्य वनसेनस्यगुरौ परलोक्र प्राप्ते यक्षदेवसूरिणा चतस्त्र शाखा स्थापिता चान्द्र शाखा नागेन्द्र शाखा निवृत्ति शाखा विद्या घर शाखा इत्यादि
"उपकेशगच्छ पट्टावली" ___“तथा श्रीपार्थ नाथजी से सतरवें सट्ठ उपर श्रीयक्षदेवसूरि हुये हैं वीरात् ५८५ वर्षे जिन्होंने बारह वर्षीय दुकाल में वज्रस्वामि के शिष्य वज्रसेन के परलोक हुये पिच्छे तिनके चार मुख्य शिष्य जिनको वज्रसेनजी ने सोपारक पट्टन में दीक्षा दींनी थी तिनके नाम से चार शाखा कुल स्थापन कर वाये हैं १ नागेन्द्र २ चान्द्र ३ निर्वृति ४ विद्याधर ये चारों कुल जैनमत में प्रसिद्ध है इत्यादि"
"आचार्य विजयानन्दसूरि कृत-जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर पुस्तक पृष्ठ ७७"
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