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________________ आचार्य ककसूर का जीवन ) [ औसवाल संवत् ६३५ -६५० शाह खेमा की लिखी पढ़ी सुशील कन्या नन्दा के साथ बड़े ही महोत्सव के साथ शादी करदी बस मंत्री ने संसार में करने योग्य कार्य कर लिया अब वह आत्मकल्याण करना चाहता था। एक समय मौका देख मंत्री ने राजा से अर्ज की कि हजूर ! मैं अब आत्म कल्याण करना चाहता हूँ श्राप मंत्री पद किसी योग्य पुरुष को दे दीजिये ? राजाने कहा मंत्री यह पद तुमारे घराना में रहता आया है तुमारे पूर्वजों से ही राज की अच्छी सेवा करते आये हैं और तुम्हारा घराना ही राज में विश्वास पात्र है अतः यह पद तो तुमारे ही खानदान में रहना चाहिये तुम नहीं तो तुमारे पुत्र को मुकर्रर करदें । श्रतः राजा के आग्रह से नागसेन को मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया नागसेन भी इस पद के योग्य था उसने मंत्री पद की जुम्मावारी अपने शिर पर ले ली बस मंत्री कनकसेन सब खट पटों को छोड़ कर धर्माराधना में लग गया. मनुष्य जन्म का सार भी यही है कि कम से कम भुक्त भोगी होने पर तो आत्म कल्याण में लग ही जाना चाहिये । मंत्री नागसेन के क्रमशः सात पुत्र और दो पुत्रियें हुई और मंत्री ने सब की शादियें वगैरह भी करदी । तो मंत्री अपना आत्म कल्याण करना चाहता था। ठीक है "यहशी भावना तदृशी सिद्धि र्भवति” मनुष्य की जैसी भावना होती है वैसा हा कार्य बन ही जाता है पर भावना होनी चाहिये सच्चे दिल की एक समय आचार्य श्रीयक्षदेवसूरि पंजाब में विहार करते हुए क्रमशः लोहाकोट नगर में पधारे श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया । मत्री नागसेन ने तो और भी विशेष आनन्द मनाया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था दार्शनिक तात्विक एवं संसार की असारता कुटुम्ब की स्वार्थकता लक्ष्मी की चंचलता आयुष्य की अस्थिरतादि पर अधिक जोर दिया जाता था । त्यागियों का व्याख्यान भी त्याग वैराग्य मय होता है श्रापश्री के व्याख्यान का जनता पर बड़ा भारी असर पड़ता था जिसमें भी मंत्री नागसेन तो सूरिजी का व्याख्यान सुन कर मुग्ध ही बन जाता था मंत्री बिना नागा हमेशाँ व्याख्यान सुनता था वह भी केवल व्यसन रूप ही नहीं पर व्याख्यान पर बराबर अमल भी करता था एक दिन मन्त्री ने पौषध व्रत किया था समय मिलने पर मन्त्री सूरिजी के पास गया और अर्ज की कि गुरुदेव ! हम लोगों का कैसे उद्धार होगा हम जान बूझ कर मोह रूपी किचड़ में फंस कर जिन्दगी व्यर्थ सी गमा रहे हैं। हम व्याख्यान सुनते हैं और समते भी हैं कि जो सामग्री इस समय मिली है इसका सदुपयोग न करें तो फिर बार बार ऐसी उत्तम सामग्री का मिलना मुश्किल है । पर न जाने कर्मों का कितना जोर है कि हम कर नही सकते है । सूरिजी ने फरमाया मंत्रीश्वर आपका कहना सत्य है कि जो आत्म कल्याण के लिये इस समय अनुकूल सामग्री मिली है वैसी बार २ मिलना कठिन है। इतना ही क्यों पर मैं तो यह भी समझना हूँ कि इस प्रकार के परिणाम आना भी कमों का जबरदस्त क्षयोपशम है और इसको थोड़ा सा बढ़ाया जाय तो सुविधा से आत्म कल्याण हो सकता है। मंत्रीश्वर ! शास्त्रकारों ने फरमाया है कि संसार के ७२ कलाओं में विज्ञ हो गया हो पर एक धर्म कला की ओर लक्ष्य नहीं है तो वे सब कर्म बन्ध का ही कारण होती हैं। देखो हमारे पास बहुत से बाल ब्रह्मचारी साधु हैं। ये वाल्यावस्था में ही दीक्षा लेकर आत्म कल्याण में लग गये हैं तो आप तो मुक्त भोगी हैं। संसार में करने योग्य सब कुछ कर लिया है। अब तो आपको संसार को तिलाञ्जलि देकर आत्म-कल्याण करना चाहिए। आपके पूर्वज धर्मसैन ने पूज्याचार्य रत्नप्रभसूरि के पास दीक्षा लेकर सुरिपद को सुशोभित किया था । औरस्वात्मा के साथ अनेक जीवों का मंत्री नागसेन और सूरिजी ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ६५३ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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